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यथे॒मां वाचं॑ कल्या॒णीमा॒वदा॑नि॒ जने॑भ्यः। ब्र॒ह्म॒रा॒ज॒न्या᳖भ्या शूद्राय॒ चार्या॑य च॒ स्वाय॒ चार॑णाय च। प्रि॒यो दे॒वानां॒ दक्षि॑णायै दा॒तुरि॒ह भू॑यासम॒यं मे॒ कामः॒ समृ॑ध्यता॒मुप॑ मा॒दो न॑मतु ॥२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यथा॑। इ॒माम्। वाच॑म्। क॒ल्या॒णीम्। आ॒वदा॒नीत्या॒ऽवदा॑नि। जने॑भ्यः। ब्र॒ह्म॒रा॒ज॒न्या᳖भ्याम्। शूद्राय॑। च॒। अर्या॑य। च॒। स्वाय॑। च॒। अर॑णाय। प्रि॒यः। दे॒वाना॑म्। दक्षि॑णायै। दा॒तुः। इ॒ह। भू॒या॒स॒म्। अ॒यम्। मे॒। कामः॑। सम्। ऋ॒ध्य॒ता॒म्। उप॑। मा॒। अ॒दः। न॒म॒तु ॥२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:26» मन्त्र:2


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर सब मनुष्यों के लिये वेद के पढ़ने और सुनने का अधिकार देता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! मैं ईश्वर (यथा) जैसे (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्राह्मण, क्षत्रिय (अर्याय) वैश्य (शूद्राय) शूद्र (च) और (स्वाय) अपने स्त्री, सेवक आदि (च) और (अरणाय) उत्तम लक्षणयुक्त प्राप्त हुए अन्त्यज के लिए (च) भी (जनेभ्यः) इन उक्त सब मनुष्यों के लिए (इह) इस संसार में (इमाम्) इस प्रगट की हुई (कल्याणीम्) सुख देनेवाली (वाचम्) चारों वेदरूप वाणी का (आवदानि) उपदेश करता हूँ, वैसे आप लोग भी अच्छे प्रकार उपदेश करें। जैसे मैं (दातुः) दान देने वाले के संसर्गी (देवानाम्) विद्वानों की (दक्षिणायै) दक्षिणा अर्थात् दान आदि के लिये (प्रियः) मनोहर पियारा (भूयासम्) होऊँ और (मे) मेरी (अयम्) यह (कामः) कामना (समृध्यताम्) उत्तमता से बढ़े तथा (मा) मुझे (अदः) वह परोक्षसुख (उप, नमतु) प्राप्त हो, वैसे आप लोग भी होवें और वह कामना तथा सुख आप को भी प्राप्त होवे ॥२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। परमात्मा सब मनुष्यों के प्रति इस उपदेश को करता है कि यह चारों वेदरूप कल्याणकारिणी वाणी सब मनुष्यों के हित के लिए मैंने उपदेश की है, इस में किसी को अनधिकार नहीं है, जैसे मैं पक्षपात को छोड़ के सब मनुष्यों में वर्तमान हुआ पियारा हूँ, वैसे आप भी होओ। ऐसे करने से तुम्हारे सब काम सिद्ध होंगे ॥२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरः सर्वेभ्यो मनुष्येभ्यो वेदपठनश्रवणाधिकारं ददातीत्याह ॥

अन्वय:

(यथा) येन प्रकारेण (इमाम्) प्रत्यक्षीकृताम् (वाचम्) वेदचतुष्टयीं वाणीम् (कल्याणीम्) कल्याणनिमित्ताम् (आवदानि) समन्तादुपदिशेयम् (जनेभ्यः) मनुष्येभ्यः (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्रह्म ब्राह्मणश्च राजन्यः क्षत्रियश्च ताभ्याम् (शूद्राय) चतुर्थवर्णाय (च) (अर्याय) वैश्याय। अर्यः स्वामिवैश्ययोः [अ꠶३.१.१०३] इति पाणिनिसूत्रम् (च) (स्वाय) स्वकीयाय (च) (अरणाय) सल्लक्षणाय प्राप्तायान्त्यजाय (प्रियः) कमनीयः (देवानाम्) विदुषाम् (दक्षिणायै) दानाय (दातुः) दानकर्त्तुः (इह) अस्मिन् संसारे (भूयासम्) (अयम्) (मे) मम (कामः) (सम्) (ऋध्यताम्) वर्द्धताम् (उप) (मा) माम् (अदः) परोक्षसुखम् (नमतु) प्राप्नोतु ॥२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या यथाऽहमीश्वरो ब्रह्मराजन्याभ्यामर्याय शूद्राय च स्वाय चारणाय च जनेभ्य इहेमां कल्याणीं वाचमावदानि तथा भवन्तोऽप्यावदन्तु। यथाऽहं दातुर्देवानां दक्षिणायै प्रियो भूयासं मेऽयं कामः समृध्यतां माऽद उपनमतु तथा भवन्तोऽपि भवन्तु तद्भवतामप्यस्तु ॥२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। परमात्मा सर्वान् मनुष्यान् प्रतीदमुपदिशतीयं वेदचतुष्टयी वाक् सर्वमनुष्याणां हिताय मयोपदिष्टा नाऽत्र कस्याप्यनधिकारोऽस्तीति। यथाऽहं पक्षपातं विहाय सर्वेषु मनुष्येषु वर्त्तमानः सन् प्रियोऽस्मि तथा भवन्तोऽपि भवन्तु। एवङ्कृते युष्माकं सर्वे कामाः सिद्धा भविष्यन्तीति ॥२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. परमेश्वर सर्व मााणसांना उपदेश करतो की, ही चारही वेदरूपी कल्याणकारी वाणी मी सर्व माणसांच्या हितासाठी सांगितलेली आहे. ती ऐकण्याचा सर्वांना अधिकार आहे. मी जसा भेदभाव न करता सर्व माणसांमध्ये व्याप्त आहे व सर्वांना प्रिय आहे तसे तुम्हीही व्हा. असे वागल्यामुळे तुमची सर्व कामे सिद्ध होतील.