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ए॒ना विश्वा॑न्य॒र्यऽआ द्यु॒म्नानि॒ मानु॑षाणाम्। सिषा॑सन्तो वनामहे ॥१८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒ना। विश्वा॑नि। अ॒र्यः। आ। द्यु॒म्नानि॑। मानु॑षाणाम्। सिषा॑सन्तः। सिसा॑सन्त॒ऽइति॒ सिसा॑ऽसन्तः। व॒ना॒म॒हे॒ ॥१८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:26» मन्त्र:18


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

ईश्वर की उपासना कैसी करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (अर्यः) ईश्वर (मानुषाणाम्) मनुष्यों की (एना) इन (विश्वानि) सब (द्युम्नानि) शोभायमान कीर्त्तियों की शिक्षा करता है, उस की (सिषासन्तः) सेवा करने की इच्छा करते हुए हम लोग (आ, वनामहे) सुखों को माँगते हैं ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः - जिस ईश्वर ने मनुष्यों के सुख के लिये धनों, वेदों और खाने-पीने योग्य वस्तुओं को उत्पन्न किया है, उसी की उपासना सब मनुष्यों को सदा करनी चाहिये ॥१८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

ईश्वरः कथमुपास्य इत्याह ॥

अन्वय:

(एना) एनानि (विश्वानि) सर्वाणि (अर्यः) ईश्वरः (आ) (द्युम्नानि) प्रदीप्तानि यशांसि (मानुषाणाम्) मनुष्याणाम् (सिषासन्तः) सेवितुमिच्छन्तः (वनामहे) याचामहे ॥१८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - योऽर्यो मानुषाणमेना विश्वानि द्युम्नानि शास्ति तं सिषासन्तो वयं सुखान्यावनामहे ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः - येनेश्वरेण मनुष्याणां सुखाय धनानि वेदा भोज्यादीनि वस्तूनि चोत्पादितानि तस्यैवोपासना सर्वैर्मनुष्यैः सदा कर्त्तव्या ॥१८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या ईश्वराने माणसांच्या सुखासाठी धन, वेद व खाण्यापिण्याने पदार्थ निर्माण केलेले आहेत. सदैव त्याचीच सर्व माणसांनी सदैव उपासना करावी.