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मा त्वा॒ग्निर्ध्व॑नयीद् धू॒मग॑न्धि॒र्मोखा भ्राज॑न्त्य॒भि वि॑क्त॒ जघ्रिः॑। इ॒ष्टं वी॒तम॒भिगू॑र्त्तं॒ वष॑ट्कृतं॒ तं दे॒वासः॒ प्रति॑ गृभ्ण॒न्त्यश्व॑म् ॥३७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। त्वा॒। अ॒ग्निः। ध्व॒न॒यी॒त्। धू॒मग॑न्धि॒रिति॑ धू॒मऽग॑न्धिः। मा। उ॒खा। भ्राज॑न्ती। अ॒भि। वि॒क्त॒। जघ्रिः॑। इ॒ष्टम्। वी॒तम्। अ॒भिगू॑र्त्त॒मित्य॒भिऽगू॑र्त्तम्। वष॑ट्कृत॒मिति॒ वष॑ट्ऽकृतम्। तम्। दे॒वासः॑। प्रति॑। गृ॒भ्ण॒न्ति॒। अश्व॑म् ॥३७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:37


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को मांस न खाना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (देवासः) विद्वान् जन जिस (इष्टम्) चाहे हुए (वीतम्) प्राप्त (अभिगूर्त्तम्) चारों ओर से जिस में उद्यम किया गया (वषट्कृतम्) ऐसी क्रिया से सिद्ध हुए (अश्वम्) वेगवान् घोड़े को (प्रति गृभ्णन्ति) प्रतीति से ग्रहण करते उस को तुम (अभि) सब ओर से (विक्त) जानो (त्वा) उस को (धूमगन्धिः) धुआँ में गन्ध जिस का वह (अग्निः) अग्नि (मा) मत (ध्वनयीत्) शब्द करे वा (तम्) उस को (जघ्रिः) जिससे किसी वस्तु को सूँघते हैं, वह (भ्राजन्ती) चकमती हुई (उखा) बटलोई (मा) मत हिंसवावे ॥३७ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन मांसाहारियों को निवृत्त कर घोड़ा आदि पशुओं की वृद्धि और रक्षा करते हैं, वैसे तुम भी करो और अग्नि आदि के विघ्नों से अलग रक्खो ॥३७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैर्मांसभक्षणं न कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(मा) (त्वा) तम् (अग्निः) पावकः (ध्वनयीत्) शब्दयेत् (धूमगन्धिः) धूमे गन्धो यस्य सः (मा) (उखा) स्थाली (भ्राजन्ती) प्रकाशमाना (अभि) सर्वतः (विक्त) विजानीत (जघ्रिः) जिघ्रति यस्याः सा (इष्टम्) अभीप्सितम् (वीतम्) प्राप्तम् (अभिगूर्त्तम्) अभितः कृतोद्यमम् (वषट्कृतम्) क्रियासिद्धम् (तम्) (देवासः) विद्वांसः (प्रति) (गृभ्णन्ति) गृह्णन्ति (अश्वम्) वेगवन्तम् ॥३७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा देवासो यमिष्टं वीतमभिगूर्त्तं वषट्कृतमश्वं प्रतिगृभ्णन्ति, तं यूयमभि विक्त त्वा तं धूमगन्धिरग्निर्मा ध्वनयीत्तं जघ्रिर्भ्राजन्त्युखा मा ध्वनयीत्॥३७ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा विद्वांसो मांसाहारिणो निवार्याऽश्वादीनां वृद्धिं रक्षां च कुर्वन्ति, तथा यूयमपि कुरुत। अग्न्यादिविघ्नेभ्यः पृथग् रक्षत ॥३७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! विद्वान लोक जसे मांसाहारी लोकांचे निवारण करून घोडे वगैरे पशूंची वाढ करतात व रक्षण करतात तसे तुम्हीही करा व अग्नी वगैरेपासून त्यांना दूर ठेवा.