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तान् पूर्व॑या नि॒विदा॑ हूमहे व॒यं भगं॑ मि॒त्रमदि॑तिं॒ दक्ष॑म॒स्रिध॑म्। अ॒र्य॒मणं॒ वरु॑ण॒ꣳ सोम॑म॒श्विना॒ सर॑स्वती नः सु॒भगा॒ मय॑स्करत्॥१६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तान्। पूर्व॑या। नि॒विदेति॑ नि॒ऽविदा॑। हू॒म॒हे॒। व॒यम्। भग॑म्। मि॒त्रम्। अदि॑तिम्। दक्ष॑म्। अ॒स्रिध॑म्। अ॒र्य॒मण॑म्। वरु॑णम्। सोम॑म्। अ॒श्विना॑। सर॑स्वती। नः॒। सु॒भगेति॑ सु॒ऽभगा॑। मयः॑। क॒र॒त्॥१६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:16


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (वयम्) हम लोग (पूर्वया) अगले सज्जनों ने स्वीकार की हुई (निविदा) वेदवाणी से (दक्षम्) चतुर (अर्यमणम्) प्रजापालक (अस्रिधम्) न विनाश करने योग्य (भगम्) ऐश्वर्य करानेवाले (मित्रम्) सब के मित्र (अदितिम्) जिस की बुद्धि कभी खण्डित नहीं होती, उस (वरुणम्) श्रेष्ठ (सोमम्) ऐश्वर्यवान् तथा (अश्विना) पढ़ानेवाले को (हूमहे) परस्पर हिरस करते हुए चाहते हैं। जैसे (सुभगा) सुन्दर ऐश्वर्यवाली (सरस्वती) समस्त विद्याओं से पूर्ण वेदवाणी (नः) हमारे और तुम्हारे लिये (मयः) सुख को (करत्) करे, वैसे (तान्) उन उक्त सज्जनों को तुम भी चाहो और सुख करो ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो-जो वेद में कहा हुआ काम है, उस-उस का ही अनुष्ठान करें। जैसे अच्छे विद्यार्थी दूसरे की हिरस से अपनी विद्या को बढ़ाते हैं, वैसे ही सब को विद्या बढ़ानी चाहिये। जैसे परिपूर्ण विद्यायुक्त माता अपने सन्तानों को अच्छी शिक्षा दे, विद्याओं की प्राप्ति करा, उनकी विद्या बढ़ाती है, वैसे ही सब को सब के लिये सुख देकर सब की वृद्धि करनी चाहिये ॥१६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(तान्) पूर्वोक्तान् (पूर्वया) पूर्वैः स्वीकृतया (निविदा) वेदवाचा। निविदिति वाङ्नामसु पठितम् ॥ (निघं०१.११) (हूमहे) स्पर्द्धेमहि (वयम्) (भगम्) ऐश्वर्यकारकम् (मित्रम्) सर्वस्य सुहृदम् (अदितिम्) अखण्डितप्रज्ञम् (दक्षम्) चतुरम् (अस्रिधम्) अहिंसनीयम् (अर्यमणम्) प्रजायाः पालकम् (वरुणम्) श्रेष्ठम् (सोमम्) ऐश्वर्यवन्तम् (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (सरस्वती) सर्वविद्यायुक्ता (नः) अस्मभ्यम् (सुभगा) सुष्ठ्वैश्वर्या (मयः) सुखम् (करत्) कुर्यात् ॥१६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा वयं पूर्वया निविदा दक्षमर्यमणमस्रिधं भगं मित्रमदितिं वरुणं सोममश्विना हूमहे यथा सुभगा सरस्वती नो युष्मभ्यं च मयस्करत्तथा तान् यूयमप्याह्वयत कुरुत च ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यद्यद्वेद्वोक्तं कर्म तत्तदेवानुष्ठेयं यथा सद्विद्यार्थिनः स्पर्द्धया विद्यां वर्द्धयन्ति, तथैव सर्वैर्विद्या वर्द्धनीया। यथा पूर्णविद्या माता सन्तानान् सुशिक्षया विद्याः प्रापय्य वर्द्धयति, तथैव सर्वैः सुखं दत्त्वा सर्वे वर्द्धनीयाः ॥१६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. वेदात जे जे सांगितले गेले आहे त्याचे माणसांनी अनुष्ठान करावे. जसे चांगले विद्यार्थी दुसऱ्या बरोबर स्पर्धा करून आपली विद्या वाढवितात तशीच सर्वांनी विद्या वाढवावी. पूर्ण विद्या प्राप्त झालेली माता जशी आपल्या संतानांना चांगले शिक्षण देऊन त्यांची विद्या वाढविते, तसेच सर्वांनी सर्वांसाठी सुखाची वृद्धी करावी.