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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे राजा जो मनुष्य (ईशानाय) समर्थ जन के लिये (त्वा) आप और (परस्वतः) परस्वत् नामी मृगविशेषों को (मित्राय) मित्र के लिये (गौरान्) गोरे मृगों को (वरुणाय) अति श्रेष्ठ के लिये (महिषान्) भैसों को (बृहस्पतये) बृहस्पति अर्थात् महात्माओं के रक्षक के लिये (गवयान्) नीलगायों को और (त्वष्ट्रे) त्वष्टा अर्थात् पदार्थविद्या से पदार्थों को सूक्ष्म करनेवाले के लिये (उष्ट्रान्) ऊँटों को (आ, लभते) अच्छे प्रकार प्राप्त होता है, वह धनधान्य युक्त होता है ॥२८ ॥
भावार्थभाषाः - जो पशुओं से यथावत् उपकार लेवें, वे समर्थ होवें ॥२८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(ईशानाय) समर्थाय जनाय (त्वा) त्वाम् (परस्वतः) मृगविशेषान् (आ, लभते) (मित्राय) (गौरान्) (वरुणाय) (महिषान्) (बृहस्पतये) (गवयान्) (त्वष्ट्रे) (उष्ट्रान्) ॥२८ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! यो मनुष्य ईशानाय त्वा परस्वतो मित्राय गौरान् वरुणाय महिषान् बृहस्पतये गवयान् त्वष्ट्र उष्ट्रानालभते, स धनधान्ययुक्तो जायते ॥२८ ॥
भावार्थभाषाः - ये पशुभ्यो यथावदुपकारान् गृह्णीयुस्ते समर्थाः स्युः ॥२८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे पशूंचा योग्य उपयोग करून घेतात ते सामर्थ्यशाली बनतात.