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यः प्रा॑ण॒तो नि॑मिष॒तो म॑हि॒त्वैक॒ऽइद्राजा॒ जग॑तो ब॒भूव॑। यऽईशे॑ऽअ॒स्य द्वि॒पद॒श्चतु॑ष्पदः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। प्रा॒ण॒तः। नि॒मि॒ष॒त इति॑ निऽमिष॒तः। म॒हि॒त्वेति॑ महि॒ऽत्वा। एकः॑। इत्। राजा॑। जग॑तः। ब॒भूव॑। यः। ईशे॑। अ॒स्य। द्वि॒पद॒ इति॑ द्वि॒ऽपदः॑। चतु॑ष्पदः। चतुः॑पद इति॒ चतुः॑पदः। कस्मै॑। दे॒वाय॑। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒ ॥३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:23» मन्त्र:3


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (यः) जो (एकः) एक (इत्) ही (महित्वा) अपनी महिमा से (निमिषतः) नेत्र आदि से चेष्टा को करते हुए (प्राणतः) प्राणी रूप (द्विपदः) दो पगवाले मनुष्य आदि वा (चतुष्पदः) चार पगवाले गौ आदि पशुसम्बन्धी इस (जगतः) संसार का (राजा) अधिष्ठाता (बभूव) होता है और (यः) जो (अस्य) इस संसार का (ईशे) सर्वोपरि स्वामी है, उस (कस्मै) आनन्दस्वरूप (देवाय) अतिमनोहर परमेश्वर की (हविषा) विशेष भक्तिभाव से (विधेम) सेवा करें, वैसे विशेष भक्तिभाव का आप लोगों को भी विधान करना चाहिये ॥३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो एक ही सब जगत् का महाराजाधिराज, समस्त जगत् का उत्पन्न करनेहारा सकल ऐश्वर्ययुक्त महात्मा न्यायाधीश है, उसी की उपासना से तुम सब धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के फलों को पाकर सन्तुष्ट होओ ॥३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(यः) परमात्मा (प्राणतः) प्राणिनः (निमिषतः) नेत्रादिना चेष्टां कुर्वतः (महित्वा) स्वमहिम्ना (एकः) अद्वितीयोऽसहायः (इत्) एव (राजा) अधिष्ठाता (जगतः) संसारस्य (बभूव) (यः) (ईशे) ईष्टे (अस्य) (द्विपदः) मनुष्यादेः (चतुष्पदः) गवादेः (कस्मै) आनन्दरूपाय (देवाय) कमनीयाय (हविषा) भक्तिविशेषेण (विधेम) परिचरेम ॥३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा वयं य एक इन्महित्वा निमिषतः प्राणतो द्विपदश्चतुष्पदोऽस्य जगतो राजा बभूव, योऽस्येशे तस्मै कस्मै देवाय हविषा विधेम तथाऽस्य भक्तिविशेषो भवद्भिर्विधेयः ॥३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! य एक एव सर्वस्य जगतो महाराजाधिराजोऽखिलजगन्निर्माता सकलैश्वर्ययुक्तो महात्मा न्यायाधीशोऽस्ति तस्यैवोपासनेन धर्मार्थकाममोक्षफलानि प्राप्य भवन्तः सन्तुष्यन्तु ॥३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जो सर्व जगाचा एक महाराजाधिराज, सर्व जगाचा निर्माणकर्ता, पूर्ण ऐश्वर्यवान, महात्मा व न्यायाधीश आहे. त्याच्या उपासनेने तुम्ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यांचे फळ प्राप्त करून संतुष्ट व्हा.