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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जिस (गभे) प्रजा में राजा अपने (पसः) राज्य को (आहन्ति) जाने वा प्राप्त हो, वह (धारका) सुख को धारण करनेवाली प्रजा (निगल्गलीति) निरन्तर सुख को निगलती-सी वर्त्तमान होती है और जिससे (यका) जो (असकौ) यह प्रजा (शकुन्तिका) छोटी चिडि़या के समान निर्बल है, इससे इस प्रजा को (आहलक्) अच्छे प्रकार जो हल से भूमि करोदता है, उसको प्राप्त होनेवाला अर्थात् हल से जुती हुई भूमि से कर को लेनेवाला राजा (वञ्चतीति) ऐसे वञ्चता अपना कर धन लेता है कि जैसे प्रजा को सुख प्राप्त हो ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यदि राजा न्याय से प्रजा की रक्षा न करे और प्रजा से कर लेवे तो जैसे-जैसे प्रजा नष्ट हो, वैसे राजा भी नष्ट होता है। यदि विद्या और विनय से प्रजा की भलीभाँति रक्षा करे तो राजा और प्रजा सब ओर से वृद्धि को पावें ॥२२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(यका) यः (असकौ) असौ प्रजा (शकुन्तिका) अल्पा पक्षिणीव निर्बला (आहलक्) समन्ताद्धलं विलेखनमञ्चति सः (इति) अनेन प्रकारेण (वञ्चति) प्रलम्भते (आ) (हन्ति) (गभे) प्रजायाम् (पसः) राष्ट्रम् (निगल्गलीति) भृशं निगलतीव वर्त्तते (धारका) सुखस्य धर्त्री ॥२२ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - यस्यां गभे राजा पसो राष्ट्रमाहन्ति सा धारका प्रजा निगल्गलीति, यतो यकाऽसकौ शकुन्तिका शकुन्तिकेव वर्त्तते, तस्मादिमामाहलग्राजा वञ्चतीति ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि राजा न्यायेन प्रजाया रक्षणं न कुर्यादकृत्वा करं गृह्णीयात्तर्हि यथा प्रजाः क्रमशः क्षीणा भवन्ति तथा राजापि नष्टो भवति। यदि विद्याविनयाभ्यां प्रजाः संरक्षेत्तर्हि राजप्रजे सर्वतो वर्द्धेताम् ॥२२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जर राजाने न्यायाने प्रजेचे रक्षण केले नाही व प्रजेकडून कर घेतला तर जसजशी प्रजा नष्ट होते तसतसा राजा नष्ट होतो. जर विद्या व विनयाने प्रजेचे चांगल्याप्रकारे रक्षण केले तर राजा व प्रजा यांची सर्व बाजूंनी भरभराट होते.