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प्र॒जाप॑तये त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मीन्द्रा॒ग्निभ्यां॑ त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि वा॒यवे॑ त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि॒ विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यो॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि॒ सर्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यो॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि। योऽअर्व॑न्तं॒ जिघा॑सति॒ तम॒भ्य᳖मीति॒ वरु॑णः। प॒रो मर्त्तः॑ प॒रः श्वा ॥५ ॥

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पद पाठ

प्र॒जापत॑य॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। त्वा। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। इन्द्रा॒ग्निभ्या॒मितीन्द्रा॒ग्निऽभ्या॑म्। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। वायवे॑। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। सर्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। यः। अर्व॑न्तम्। जिघा॑सति। तम्। अ॒भि। अ॒मी॒ति॒। वरु॑णः। प॒रः। मर्त्तः। प॒रः। श्वा ॥५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:22» मन्त्र:5


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य किन को बढ़ावें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! (यः) जो (परः) उत्तम और (वरुणः) श्रेष्ठ (मर्त्तः) मनुष्य (अर्वन्तम्) शीघ्र चलने हारे घोड़े को (जिघांसति) ताड़ना देने वा चलाने की इच्छा करता है (तम्) उसको (अभि, अमीति) सब ओर से प्राप्त होता है और जो (परः) अन्य मनुष्य (श्वा) कुत्ते के समान वर्त्तमान अर्थात् दुष्कर्मी है, उसको जो रोकता है, उस (प्रजापतये) प्रजा की पालना करनेवाले के लिये (जुष्टम्) प्रीति किये गये (त्वा) तुझ को (प्रोक्षामि) अच्छे प्रकार सींचता हूँ। (इन्द्राग्निभ्याम्) जीव और अग्नि के लिये (जुष्टम्) प्रीति किये हुए (त्वा) तुझ को (प्रोक्षामि) अच्छे प्रकार सींचता हूँ। (वायवे) पवन के लिये (जुष्टम्) प्रीति किये हुए (त्वा) तुझको (प्रोक्षामि) अच्छे प्रकार सींचता हूँ। (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (जुष्टम्) प्रीति किये हुए (त्वा) तुझ को (प्रोक्षामि) अच्छे प्रकार सींचता हूँ। (सर्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) दिव्य पृथिवी आदि पदार्थों के लिये (जुष्टम्) प्रीति किये हुए (त्वा) तुझ को (प्रोक्षामि) अच्छी प्रकार सींचता हूँ ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य उत्तम पशुओं के मारने की इच्छा करते हों, वे सिंह के समान मारने चाहिये और जो इन पशुओं की रक्षा करने को अच्छा यत्न करते हैं, वे सबकी रक्षा करने के लिये अधिकार देने योग्य हैं ॥५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कान् वर्द्धयेयुरित्याह ॥

अन्वय:

(प्रजापतये) प्रजापालकाय (त्वा) त्वाम् (जुष्टम्) प्रीतम् (प्रोक्षामि) प्रकृष्टतयाऽभिषिञ्चामि (इन्द्राग्निभ्याम्) जीवाग्निभ्याम् (त्वा) (जुष्टम्) (प्रोक्षामि) पवनाय (त्वा) (जुष्टम्) (प्रोक्षामि) (विश्वेभ्यः) अखिलेभ्यः (त्वा) त्वाम् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (जुष्टम्) (प्रोक्षामि) (सर्वेभ्यः) समग्रेभ्यः (त्वा) (देवेभ्यः) दिव्येभ्यः पृथिव्यादिपदार्थेभ्यः (जुष्टम्) (प्रोक्षामि) (यः) (अर्वन्तम्) शीघ्रगामिनमश्वम् (जिघांसति) हन्तुमिच्छति (तम्) (अभि) (अमीति) प्राप्नोति (वरुणः) श्रेष्ठः (परः) उत्कृष्टः (मर्त्तः) मनुष्य (परः) (श्वा) कुक्कुरः ॥५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यः परो वरुणो मर्त्तोऽर्वन्तं जिघांसति तमभ्यमीति यः परः श्वेव वर्त्तते यस्तं निवारयति तं प्रजापतये जुष्टं त्वा प्रोक्षामीन्द्राग्निभ्यां जुष्टं त्वा प्रोक्षामि वायवे त्वा जुष्टं प्रोक्षामि विश्वेभ्यो देवेभ्यो जुष्टं त्वा प्रोक्षामि सर्वेभ्यो देवेभ्यो जुष्टं त्वा प्रोक्षामि ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या उत्तमान् पशून् हिंसितुमिच्छेयुस्ते सिंहवद्धन्तव्याः, य एतान् रक्षितुं यतेरंस्ते सर्वरक्षणायाधिकर्त्तव्याः ॥५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे उत्तम पशूंना मारण्याची इच्छा बाळगतात त्यांची सिंहाप्रमाणे शिकार करावी व जे या पशूंचे रक्षण करण्याचा प्रयत्न करतात त्यांना सगळ्यांचे रक्षण करण्याचा अधिकार द्यावा.