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एक॑स्मै॒ स्वाहा॑ द्वाभ्या॒ स्वाहा॑ श॒ताय॒ स्वाहैक॑शताय॒ स्वाहा॑ व्युष्ट्यै॒ स्वाहा॑ स्व॒र्गाय॒ स्वाहा॑ ॥३४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

एक॑स्मै। स्वाहा॑। द्वाभ्या॑म्। स्वाहा॑। श॒ताय॑। स्वाहा॑। एक॑शता॒येत्येक॑ऽशताय। स्वाहा॑। व्युष्ट्या॒ इति॒ विऽउ॑ष्ट्यै॒। स्वाहा॑। स्व॒र्गायेति॑ स्वः॒ऽगाय॑। स्वाहा॑ ॥३४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:22» मन्त्र:34


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर किसके अर्थ यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोगों को (एकस्मै) एक अद्वितीय परमात्मा के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया (द्वाभ्याम्) दो अर्थात् कार्य और कारण के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (शताय) अनेक पदार्थों के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (एकशताय) एक सौ एक व्यवहार वा पदार्थों के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (व्युष्ट्यै) प्रकाशित हुई पदार्थों को जलाने की क्रिया के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया और (स्वर्गाय) सुख को प्राप्त होने के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया भलीभाँति युक्त करनी चाहिये ॥३४ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि विशेष भक्ति से जिसके समान दूसरा नहीं, वह ईश्वर तथा प्रीति और पुरुषार्थ से असंख्य जीवों को प्रसन्न करें, जिससे संसार का सुख और मोक्ष सुख प्राप्त होवे ॥३४ ॥ इस मन्त्र में आयु, वृद्धि, अग्नि के गुण, कर्म, यज्ञ, गायत्री मन्त्र का अर्थ और सब पदार्थों के शोधने के विधान आदि का वर्णन होने से इस अध्याय के अर्थ की पिछले अध्याय के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीमन्महाविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते यजुर्वेदभाष्ये द्वाविंशोऽध्यायः समाप्तः ॥२२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः किमर्थो यज्ञोऽनुष्ठातव्य इत्याह ॥

अन्वय:

(एकस्मै) अद्वितीयाय परमात्मने (स्वाहा) सत्या क्रिया (द्वाभ्याम्) कार्यकारणाभ्याम् (स्वाहा) (शताय) असंख्याताय पदार्थाय (स्वाहा) (एकशताय) एकाधिकाय शताय (स्वाहा) (व्युष्ट्यै) प्रदीप्तायै दाहक्रियायै (स्वाहा) (स्वर्गाय) सुखगमकाय पुरुषार्थाय (स्वाहा) ॥३४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! युष्माभिरेकस्मै स्वाहा द्वाभ्यां स्वाहा शताय स्वाहैकशताय स्वाहा व्युष्ट्यै स्वाहा स्वर्गाय स्वाहा च संप्रयोज्या ॥३४ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्भक्तिविशेषेणाऽद्वितीय ईश्वरः प्रेमपुरुषार्थाभ्यामसंख्याता जीवाश्च प्रसन्नाः कार्य्या, येनाऽऽभ्युदयिकनैःश्रेयसिके सुखे प्राप्येतामिति ॥३४ ॥ अत्रायुर्वृद्ध्यग्नियज्ञगायत्र्यर्थसर्वपदार्थशोधनविधानादिवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वाध्यायोक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्याच्यसारख्या दुसरा कोणीच नाही अशा परमेश्वराची माणसांनी विशेष भक्ती करावी व असंख्य जीवांना प्रेमाने व पुरुषार्थाने प्रसन्न करावे म्हणजे सांसारिक सुख व मोक्षसुख प्राप्त होईल.