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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर अग्नि कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अमर्त्यः) मृत्युधर्म से रहित (हव्यवाट्) होमे हुए पदार्थ को एक देश से दूसरे देश में पहुँचाता (उशिक्) प्रकाशमान (दूतः) दूत के समान वर्त्तमान (चनोहितः) और जो अन्नों की प्राप्ति करानेवाला (अग्निः) अग्नि है, (सः) वह (धिया) कर्म अर्थात् उस के उपयोगी शिल्प आदि काम से (सम्, ऋण्वति) अच्छे प्रकार प्राप्त होता है ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे काम के लिये भेजा हुआ दूत करने योग्य काम को सिद्ध करने हारा होता है, वैसे अच्छे प्रकार युक्त किया हुआ अग्नि सुखसम्बन्धी कार्य्य को सिद्ध करने हारा होता है ॥१६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनरग्निः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥
अन्वय:
(सः) (हव्यवाट्) यो हव्यं वहति देशान्तरं प्रापयति सः (अमर्त्यः) मृत्युधर्मरहितः (उशिक्) कान्तिमान् (दूतः) दूत इव वर्त्तमानः (चनोहितः) यश्चनांसि अन्नानि हिनोति प्रापयति सः (अग्निः) पावकः (धिया) कर्मणा (सम्) (ऋण्वति) प्राप्नोति ॥१६ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! योऽमर्त्यो हव्यवाडुशिग्दूतश्चनोहितोऽग्निरस्ति स धिया समृण्वति ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - यथा कार्यार्थं प्रेषितो दूतः कार्यसाधको भवति तथा सम्प्रयोजितोऽग्निः सुखकार्य्यसिद्धिकरो भवति ॥१६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा दूत आपले कार्य योग्य तऱ्हेने पार पाडतो. तसा योग्य तऱ्हेने प्रयुक्त केलेला अग्नी सुखकारक कार्य करतो.