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तेजो॑ऽसि शु॒क्रम॒मृत॑मायु॒ष्पाऽआयु॑र्मे पाहि। दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्या॒माद॑दे ॥१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तेजः॑। अ॒सि॒। शु॒क्रम्। अ॒मृत॑म्। आ॒यु॒ष्पाः। आ॒युः॒पा इत्या॑युः॒ऽपाः। आयुः॑। मे॒। पा॒हि॒। दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒ ॥१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:22» मन्त्र:1


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब बाईसवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है, उस के प्रथम मन्त्र में आप्त सकल शास्त्रों का जाननेवाला विद्वान् कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्ते, इस विषय को कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! मैं (देवस्य) सब के प्रकाश करने (सवितुः) और समस्त जगत् के उत्पन्न करने हारे जगदीश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये जिसमें कि प्राणी आदि उत्पन्न होते उस संसार में (अश्विनोः) पवन और बिजुली रूप आग के धारण और खैंचने आदि गुणों के समान (बाहुभ्याम्) भुजाओं और (पूष्णः) पुष्टि करनेवाले सूर्य की किरणों के समान (हस्ताभ्याम्) हाथों से जिस (त्वा) तुझे (आददे) ग्रहण करता हूँ वा जो तू (अमृतम्) स्व-स्वरूप से विनाशरहित (शुक्रम्) वीर्य्य और (तेजः) प्रकाश के समान जो (आयुष्पाः) आयुर्दा की रक्षा करनेवाला (असि) है, सो तू अपनी दीर्घ आयुर्दा कर के (मे) मेरी (आयुः) आयु की (पाहि) रक्षा कर ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे शरीर में रहनेवाली बिजुली शरीर की रक्षा करती वा जैसे बाहरले सूर्य और पवन जीवन के हेतु हैं, वैसे ईश्वर के बनाये इस जगत् में आप्त अर्थात् सकल शास्त्र का जाननेवाला विद्वान् होता है, यह सब को जानना चाहिये ॥१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

तत्रादावाप्तो विद्वान् कथं वर्त्तेतेत्याह ॥

अन्वय:

(तेजः) प्रकाशः (असि) (शुक्रम्) वीर्यम् (अमृतम्) स्वस्वरूपेण नाशरहितम् (आयुष्पाः) यः आयुः पाति सः (आयुः) जीवनम् (मे) मम (पाहि) (देवस्य) सर्वप्रकाशकस्य (त्वा) त्वाम् (सवितुः) सकलजगदुत्पादकस्य (प्रसवे) प्रसूयन्ते प्राणिनो यस्मिन् संसारे तस्मिन् (अश्विनोः) वायुविद्युतोः (बाहुभ्याम्) (पूष्णः) पुष्टिकर्त्तुः सूर्यस्य (हस्ताभ्याम्) (आ) (ददे) गृह्णामि ॥१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन्नहं देवस्य सवितुर्जगदीश्वरस्य प्रसवेऽश्विनोर्धारणाकर्षणाभ्यामिव बाहुभ्यां पूष्णः किरणैरिव हस्ताभ्यां यन्त्वाददे यस्त्वममृतं शुक्रं तेज इवायुष्पा असि स त्वं स्वं दीर्घायुः कृत्वा मे ममाऽऽयुः पाहि ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा शरीरस्था विद्युच्छरीरं रक्षति, यथा बाह्यौ सूर्यवायू जीवनहेतूस्तथेश्वररचितेऽस्मिन् जगति आप्तो विद्वान् भवतीति सर्वैर्वेद्यम् ॥१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी शरीरातील विद्युत शरीराचे रक्षण करते किंवा सूर्य व वायू जीवनाचे कारण असतात तसे ईश्वराच्या या सृष्टीत आप्त म्हणजे सर्व शास्रांचे जाणकार विद्वान हे रक्षक असतात हे सर्वांनी जाणले पाहिजे.