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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (मित्रावरुणा) प्राण और उदान वायु के समान वर्त्तने हारे (सुक्रतू) शुभ बुद्धि वा उत्तम कर्मयुक्त शिल्पी लोगो ! तुम (घृतैः) जलों से (नः) हमारे (गव्यूतिम्) दो कोश को (उक्षतम्) सेचन करो और (आ, मध्वा) सब ओर से मधुर जल से (रजांसि) लोकों का सेचन करो ॥८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो शिल्पविद्यावाले लोग नाव आदि को जल आदि मार्ग से चलावें तो वे ऊपर और नीचे मार्गों में जाने को समर्थ हों ॥८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(आ) समन्तात् (नः) अस्माकम् (मित्रावरुणा) प्राणोदानाविव (घृतैः) उदकैः (गव्यूतिम्) क्रोशद्वयम् (उक्षतम्) सिञ्चतम् (मध्वा) मधुना जलेन (रजांसि) लोकान् (सुक्रतू) शोभनाः प्रज्ञाः कर्माणि वा ययोस्तौ ॥८ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मित्रावरुणा प्राणोदानवद्वर्त्तमानौ सुक्रतू शिल्पिनौ ! युवां घृतैर्नो गव्यूतिमुक्षतमा मध्वा रजांस्युक्षतम् ॥८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि शिल्पिनो यानानि जलादिना चालयेयुस्तर्हि त ऊर्ध्वाऽधोमार्गेषु गन्तुं शक्नुयुः ॥८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे कारागीर हस्तविद्याकौशल्य जाणणारे असतात ते नावा इत्यादींना जलमार्गातून नेतात. त्यांनी खडतर मार्गातून नावा नेण्यास समर्थ असावे.