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सू॒प॒स्थाऽअ॒द्य दे॒वो वन॒स्पति॑रभवद॒श्विभ्यां॒ छागे॑न॒ सर॑स्वत्यै मे॒षेणेन्द्रा॑यऽऋष॒भेणाक्षँ॒स्तान् मे॑द॒स्तः प्रति॑ पच॒तागृ॑भीष॒तावी॑वृधन्त पुरो॒डाशै॒रपु॑र॒श्विना॒ सर॑स्व॒तीन्द्रः॑ सु॒त्रामा॑ सुरासो॒मान् ॥६० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सू॒प॒स्था इति॑ सुऽउप॒स्थाः। अ॒द्य। दे॒वः। वन॒स्पतिः॑। अ॒भ॒व॒त्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। छागे॑न। सर॑स्वत्यै। मे॒षेण॑। इन्द्रा॑य। ऋ॒ष॒भेण॑। अक्ष॑न्। तान्। मे॒द॒स्तः। प्रति॑। प॒च॒ता। अगृ॑भीषत। अवी॑वृधन्त। पु॒रो॒डाशैः॑। अपुः॑। अ॒श्विना॑। सर॑स्वती। इन्द्रः॑। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। सु॒रा॒सो॒मानिति॑ सुराऽसो॒मान् ॥६० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:60


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करके क्या करना चाहिए, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (अद्य) आज (सूपस्थाः) भलीभाँति समीप स्थिर होनेवाले और (देवः) दिव्य गुणवाला पुरुष (वनस्पतिः) वट वृक्ष आदि के समान जिस-जिस (अश्विभ्याम्) प्राण और अपान के लिए (छागेन) दुःख विनाश करनेवाले छेरी आदि पशु से (सरस्वत्यै) वाणी के लिए (मेषेण) मेंढ़ा से (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य्य के लिए (ऋषभेण) बैल से (अक्षन्) भोग करें, उपयोग लें (तान्) उन (मेदस्तः) सुन्दर चिकने पशुओं के (प्रति) प्रति (पचता) पचाने योग्य वस्तुओं का (अगृभीषत) ग्रहण करें (पुरोडाशैः) प्रथम उत्तम संस्कार किये हुए विशेष अन्नों से (अवीवृधन्त) वृद्धि को प्राप्त हों (अश्विना) प्राण, अपान (सरस्वती) प्रशंसित वाणी (सुत्रामा) भलीभाँति रक्षा करनेहारा (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य्यवान् राजा (सुरासोमान्) जो अर्क खींचने से उत्पन्न हों, उन औषधिरसों को (अपुः) पीवें, वैसे आप (अभवत्) होओ ॥६० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य छेरी आदि पशुओं के दूध आदि प्राण-अपान की रक्षा के लिए, चिकने और पके हुए पदार्थों का भोजन कर उत्तम रसों के पीके वृद्धि को पाते हैं, वे अच्छे सुख को प्राप्त होते हैं ॥६० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कृत्वा किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(सूपस्थाः) ये सुष्ठूपतिष्ठन्ति ते (अद्य) (देवः) दिव्यगुणः (वनस्पतिः) वटादिः (अभवत्) भवेत् (अश्विभ्याम्) प्राणापानाभ्याम् (छागेन) दुःखछेदकेन (सरस्वत्यै) वाचे (मेषेण) (इन्द्राय) (ऋषभेण) (अक्षन्) भुञ्जीरन् (तान्) (मेदस्तः) मेदशः स्निग्धान् (प्रति) (पचता) पचतानि पक्तव्यानि। अत्रौणादिकोऽतच् (अगृभीषत) गृह्णन्तु (अवीवृधन्त) वर्धन्ताम् (पुरोडाशैः) संस्कृतान्नविशेषैः (अपुः) पिबन्तु (अश्विना) प्राणाऽपानौ (सरस्वती) प्रशस्ता वाक् (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यो राजा (सुत्रामा) सुष्ठु रक्षकः (सुरासोमान्) ये सुरयाऽभिषवेन सूयन्ते तान् ॥६० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथाऽद्य सूपस्था देवो वनस्पतिरिव येन येनाश्विभ्यां छागेन सरस्वत्यै मेषेणेन्द्राय ऋषभेणाक्षँस्तान् मेदस्तः प्रतिपचतागृभीषत पुरोडाशैरवीवृधन्ताश्विना सरस्वती सुत्रामेन्द्रः सुरासोमानपुस्तथा भवानभवद्भवेत्॥६० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याश्छागादिदुग्धादिभिः प्राणाऽपानरक्षणाय स्निग्धान् पक्वान् पदार्थान् भुक्त्वोत्तमान् रसान् पीत्वा वर्धन्ते ते सुसुखं लभन्ते ॥६० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे प्राण अपान यांच्या रक्षणासाठी शेळी इत्यादी पशूंचे दूध पितात, स्निग्ध व पक्व पदार्थांचे भोजन करतात आणि उत्तम रस प्राशन करतात, त्यांची वृद्धी होते व त्यांना सुख प्राप्त होते.