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होता॑ यक्ष॒द् वन॒स्पति॑ꣳ शमि॒तार॑ꣳ श॒तक्र॑तुं भी॒मं न म॒न्युꣳ राजा॑नं व्या॒घ्रं नम॑सा॒श्विना॒ भाम॒ꣳ सर॑स्वती भि॒षगिन्द्रा॑य दुहऽइन्द्रि॒यं पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥३९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। वन॒स्पति॑म्। श॒मि॒तार॑म्। श॒तक्र॑तु॒मिति॑ श॒तऽक्र॑तुम्। भी॒मम्। न। म॒न्युम्। राजा॑नाम्। व्या॒घ्रम्। नम॑सा। अ॒श्विना। भाम॑म्। सर॑स्वती। भि॒षक्। इन्द्रा॑य। दु॒हे॒। इ॒न्द्रि॒यम्। पयः॑। सोमः॑। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:39


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) लेने हारे जैसे (भिषक्) वैद्य (होता) वा लेने हारा (इन्द्राय) धन के लिए (वनस्पतिम्) किरणों को पालने और (शमितारम्) शान्ति देने हारे (शतक्रतुम्) अनन्त बुद्धि वा बहुत कर्मयुक्त जन को (भीमम्) भयकारक के (न) समान (मन्युम्) क्रोध को वा (नमसा) वज्र से (व्याघ्रम्) सिंह और (राजानम्) देदीप्यमान राजा को (यक्षत्) प्राप्त करे वा (सरस्वती) उत्तम विज्ञानवाली स्त्री और (अश्विना) सभा और सेनापति (भामम्) क्रोध को (दुहे) परिपूर्ण करे, वैसे (परिस्रुता) प्राप्त हुए पुरुषार्थ के साथ (इन्द्रियम्) धन (पयः) रस (सोमः) चन्द्र (घृतम्) घी (मधु) मधुर वस्तु (व्यन्तु) प्राप्त होवें, उनके साथ वर्त्तमान तू (आज्यस्य) घी का (यज) हवन कर ॥३९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य लोग विद्या से अग्नि, शान्ति से विद्वान्, पुरुषार्थ से बुद्धि और न्याय से राज्य को प्राप्त होके ऐश्वर्य को बढ़ाते हैं, वे इस जन्म और परजन्म के सुख को प्राप्त होते हैं ॥३९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(होता) आदाता (यक्षत्) (वनस्पतिम्) किरणानां पालकम् (शमितारम्) शान्तिप्रदम् (शतक्रतुम्) असंख्यप्रज्ञं बहुकर्माणं वा (भीमम्) भयंकरम् (न) इव (मन्युम्) क्रोधम् (राजानम्) राजमानम् (व्याघ्रम्) सिंहम् (नमसा) वज्रेण (अश्विना) सभासेनेशौ (भामम्) क्रोधम् (सरस्वती) प्रशस्तविज्ञानवती (भिषक्) वैद्यः (इन्द्राय) धनाय (दुहे) प्रपूरयेत् (इन्द्रियम्) धनम् (पयः) रसम् (सोमः) चन्द्रः (परिस्रुता) (घृतम्) (मधु) मधुरं वस्तु (व्यन्तु) (आज्यस्य) प्राप्तुमर्हस्य (होतः) (यज) ॥३९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतर्यथा भिषग्घोता इन्द्राय वनस्पतिमिव शमितारं शतक्रतुं भीमं न मन्युं नमसा व्याघ्रं न राजानं यक्षत्सरस्वत्यश्विना भामं दुहे तथा परिस्रुतेन्द्रियं पयः सोमो घृतं मधु व्यन्तु तैः सह वर्त्तमानस्त्वमाज्यस्य यज ॥३९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या विद्यया वह्निं शान्त्या विद्वांसं पुरुषार्थेन प्रज्ञां न्यायेन राज्यं च प्राप्यैश्वर्यं वर्द्धयन्ति त ऐहिकपारमार्थिके सुखे प्राप्नुवन्ति ॥३९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचक लुप्तोपमालंकार आहेत. जी माणसे विद्येच्या साह्याने अग्नी प्राप्त करतात, शांती देणाऱ्या विद्वानांना जवळ करतात, पुरुषार्थाने बुद्धीची वाढ करतात व न्यायाने राज्यप्राप्ती करुन ऐश्वर्य वाढवितात, ते या जन्मी व परजन्मी सुख प्राप्त करतात.