वांछित मन्त्र चुनें

होता॑ यक्षद् ब॒र्हि॒रूर्ण॑म्रदा भि॒षङ् नास॑त्या भि॒षजा॒श्विनाश्वा॒ शिशु॑मती भि॒षग्धे॒नुः सर॑स्वती भि॒षग्दु॒हऽइन्द्रा॑य भेष॒जं पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रु॒ता घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥३३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। ब॒र्हिः। ऊर्ण॑म्रदा॒ इत्यूर्ण॑ऽम्रदाः। भि॒षक्। ना॑सत्या। भि॒षजा॑। अ॒श्विना॑। अश्वा॑। शिशु॑म॒तीति॒ शिशु॑ऽमती। भि॒षक्। धे॒नुः। सर॑स्वती। भि॒षक्। दु॒हे। इन्द्रा॑य। भे॒ष॒जम्। पयः॑। सोमः॑। प॒रि॒स्रु॒तेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:33


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) हवन करनेहारे जन ! जैसे (होता) देने हारा (ऊर्णम्रदाः) ढाँपने हारों को मर्दन करनेवाले जन (भिषक्) वैद्य (शिशुमती) और प्रशंसित बालकोंवाली (अश्वा) शीघ्र चलनेवाली घोड़ी (दुहे) परिपूर्ण करने के लिए (बर्हिः) अन्तरिक्ष को (यक्षत्) सङ्गत करें वा जैसे (नासत्या) सत्यव्यवहार करने हारे (अश्विना) वैद्यविद्या में व्याप्त (भिषजा) उत्तम वैद्य मेल करें वा जैसे (भिषक्) रोग मिटाने और (धेनुः) दुग्ध देनेवाली गाय वा (सरस्वती) उत्तम विज्ञानवाली वाणी (भिषक्) सामान्य वैद्य (इन्द्राय) जीव के लिए मेल करें, वैसे जो (परिस्रुता) प्राप्त हुए रस के साथ (भेषजम्) जल (पयः) दूध (सोमः) ओषधिगण (घृतम्) घी (मधु) सहत (व्यन्तु) प्राप्त हों, उन के साथ वर्त्तमान तू (आज्यस्य) घी का (यज) हवन कर ॥३३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विद्या और सङ्गति से सब पदार्थों से उपकार ग्रहण करें, तो वायु और अग्नि के समान सब विद्याओं के सुखों को व्याप्त होवें ॥३३ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(होता) दाता (यक्षत्) (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (ऊर्णम्रदाः) य ऊर्णानाच्छादकानि मृद्नन्ति ते (भिषक्) वैद्यः (नासत्या) सत्यकर्त्तारौ (भिषजा) सद्वैद्यौ (अश्विना) वैद्यकविद्याव्यापिनौ (अश्वा) आशुगमनशीला वडवा (शिशुमती) प्रशस्ताः शिशवो विद्यन्ते यस्याः सा (भिषक्) रोगनिवारका (धेनुः) दुग्धदात्री गौः (सरस्वती) सरो विज्ञानं विद्यते यस्यां सा (भिषक्) वैद्यः (दुहे) दोहनाय (इन्द्राय) जीवाय (भेषजम्) उदकम्। भेषजमित्युदकनामसु पठितम् ॥ निघं०१.१२ ॥ (पयः) दुग्धम्। (सोमः) ओषधिगणः (परिस्रुता) (घृतम्) (मधु) (व्यन्तु) (आज्यस्य) (होतः) (यज) ॥३३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतर्यथा होतोर्णम्रदा भिषक्शिशुमत्यश्वा च दुहे बर्हिर्यक्षत्। नासत्याऽश्विना भिषजा यजेतां भिषग्धेनुः सरस्वती भिषगिन्द्राय यक्षत्तथा यानि परिस्रुता भेषजं पयः सोमो घृतं मधु व्यन्तु तैः सह वर्त्तमानस्त्वमाज्यस्य यज ॥३३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि मनुष्या विद्यासङ्गतिभ्यां सर्वेभ्यः पदार्थेभ्य उपकारान् गृह्णीयुस्तर्हि वाय्वग्निवत्सर्वविद्यासुखानि व्याप्नुयुः ॥३३ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. अग्नी व वायू जसे सर्वत्र व्याप्त असतात, तसे जी माणसे विद्या व सत्संगाने सर्व पदार्थांचा यथायोग्य उपयोग करून घेतात त्यांना सर्व प्रकारचे सुख मिळते.