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उ॒षे य॒ह्वी सु॒पेश॑सा॒ विश्वे॑ दे॒वाऽअम॑र्त्याः। त्रि॒ष्टुप् छन्द॑ऽइ॒हेन्द्रि॒यं प॑ष्ठ॒वाड् गौर्वयो॑ दधुः ॥१७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒षेऽइत्यु॒षे। य॒ह्वीऽइति॑ य॒ह्वी। सु॒पेश॒सेति॑ सु॒ऽपेश॑सा। विश्वे॑। दे॒वाः। अम॑र्त्याः। त्रि॒ष्टुप्। त्रि॒स्तुबिति॑ त्रि॒ऽस्तुप्। छन्दः॑। इ॒ह। इ॒न्द्रि॒यम्। प॒ष्ठ॒वाडिति॑ पष्ठ॒ऽवाट्। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥१७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:17


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (इह) इस जगत् में (सुपेशसा) सुन्दर रूपयुक्त पढ़ाने और उपदेश करने हारी (यह्वी) बड़ी (उषे) दहन करनेवाली प्रभात वेला के समान दो स्त्री (अमर्त्याः) तत्त्वस्वरूप से नित्य (विश्वे) सब (देवाः) देदीप्यमान पृथ्वी आदि लोक (त्रिष्टुप् छन्दः) त्रिष्टुप् छन्द और (पष्ठवाट्) पीठ से उठानेवाला (गौः) बैल (वयः) उत्पत्ति और (इन्द्रियम्) धन को धारण करते हैं, वैसे (दधुः) तुम लोग भी आचरण करो ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे पृथ्वी आदि पदार्थ परोपकारी हैं, वैसे इस जगत् में मनुष्यों को होना चाहिए ॥१७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(उषे) दहनकर्त्र्याविव स्त्रियौ (यह्वी) महती महत्यौ (सुपेशसा) सुष्ठु पेशो रूपं ययोस्तावध्यापिकोपदेशिके। विभक्तेरात्वम् (विश्वे) सर्वे (देवाः) देदीप्यमानाः पृथिव्यादयः (अमर्त्याः) तत्त्वस्वरूपेण नित्याः (त्रिष्टुप्) (छन्दः) (इह) अस्मिन् संसारे (इन्द्रियम्) धनम् (पष्ठवाट्) यः पष्ठेन पृष्ठेन वहति सः। इदं पृषोदरादिना सिद्धम् (गौः) वृषभः (वयः) प्रजननम् (दधुः) दध्युः ॥१७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथेह सुपेशसोषे यह्वी अमर्त्या विश्वे देवास्त्रिष्टुप् छन्दः पष्ठवाड्गौर्वय इन्द्रियं दधुस्तथा यूयमप्याचरत ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - यथा पृथिव्यादयः पदार्थाः परोपकारिणः सन्ति, तथाऽत्र मनुष्यैर्भवितव्यम् ॥१७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या जगात पृथ्वी वगैरे पदार्थ जसे परोपकारी आहेत, तसेच माणसांनी वागावे.