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यऽइन्द्र॑ऽइन्द्रि॒यं द॒धुः स॑वि॒ता वरु॑णो॒ भगः॑। स सु॒त्रामा॑ ह॒विष्प॑ति॒र्यज॑मानाय सश्चत ॥७० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ये। इन्द्रे॑। इ॒न्द्रि॒यम्। द॒धुः। स॒वि॒ता। वरु॑णः। भगः॑। सः। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। ह॒विष्प॑तिः। ह॒विःप॑ति॒रिति॑ ह॒विःऽप॑तिः। यज॑मानाय। स॒श्च॒त॒ ॥७० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:70


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! (ये) जो लोग (इन्द्रे) ऐश्वर्य्य में (इन्द्रियम्) धन को (दधुः) धारण करें, वे सुखी होवें। इस कारण जो (भगः) सेवा करने के योग्य (वरुणः) श्रेष्ठ (सविता) ऐश्वर्य की इच्छा से युक्त (सुत्रामा) अच्छे प्रकार रक्षक (हविष्पतिः) होम करने योग्य पदार्थों की रक्षा करेनहारा मनुष्य (यजमानाय) यज्ञ करनेहारे के लिये धन को (सश्चत) सेवे, (सः) वह प्रतिष्ठा को प्राप्त होवे ॥७० ॥
भावार्थभाषाः - जैसे पुरोहित यजमान के ऐश्वर्य को बढ़ाता है, वैसे यजमान भी पुरोहित के धन को बढ़ावे ॥७० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(ये) (इन्द्रे) ऐश्वर्ये (इन्द्रियम्) धनम् (दधुः) (सविता) ऐश्वर्यमिच्छुकः (वरुणः) श्रेष्ठः (भगः) भजनीयः (सः) (सुत्रामा) सुष्ठु रक्षकः (हविष्पतिः) हविषां पालकः (यजमानाय) यज्ञाऽनुष्ठात्रे (सश्चत) भजतु। षच सेवने लोडर्थे लङ् सुगागमोऽडभावश्च छान्दसः ॥७० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! य इन्द्र इन्द्रियं दधुस्ते सुखिनः स्युरतो यो भगो वरुणः सविता सुत्रामा हविष्पतिर्जनो यजमानायेन्द्रियं सश्चत सेवते स प्रतिष्ठां प्राप्नुयात् ॥७० ॥
भावार्थभाषाः - यथा पुरोहितो यजमानस्यैश्वर्र्यं वर्द्धयति, तथा यजमानोऽपि पुरोहितस्य धनं वर्द्धयेत् ॥७० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा पुरोहित यजमानाचे ऐश्वर्य वाढवितो तसे यजमानानेही पुरोहिताचे धन वाढवावे.