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ऋ॒तु॒थेन्द्रो॒ वन॒स्पतिः॑ शशमा॒नः प॑रि॒स्रुता॑। की॒लाल॑म॒श्विम्यां॒ मधु॑ दु॒हे धे॒नुः सर॑स्वती ॥६५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒तु॒थेत्यृ॑तु॒ऽथा। इन्द्रः॑। वन॒स्पतिः॑। श॒श॒मा॒नः। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। की॒लाल॑म्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। मधु॑। दु॒हे। धे॒नुः। सर॑स्वती ॥६५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:65


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (धेनुः) दूध देनेवाली गौ के समान (सरस्वती) अच्छी उत्तम शिक्षा से युक्त वाणी (परिस्रुता) सब ओर से भरनेवाली जलादि पदार्थ के साथ (ऋतुथा) ऋतुओं के प्रकारों से और (शशमानः) बढ़ता हुआ (इन्द्रः) ऐश्वर्य करनेहारा (वनस्पतिः) वट आदि वृक्ष (मधु) मधुर आदि रस और (कीलालम्) अन्न को (अश्विभ्याम्) वैद्यों से कामनाओं को पूर्ण करता है, वैसे मैं (दुहे) पूर्ण करूँ ॥६५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अच्छे वैद्यजन उत्तम-उत्तम वनस्पतियों से सारग्रहण के लिये प्रयत्न करते हैं, वैसे सब को प्रयत्न करना चाहिये ॥६५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(ऋतुथा) ऋतुप्रकारैः। अत्र वा च्छन्दसि इति ऋतुशब्दादपि थाल् (इन्द्रः) ऐश्वर्य्यकरः (वनस्पतिः) वटादिः (शशमानः) (परिस्रुता) परितः सर्वतः स्रवति तेन (कीलालम्) अन्नम् (अश्विभ्याम्) वैद्याभ्याम् (मधु) मिष्टादिकं रसम् (दुहे) पूर्णं कुर्याम् (धेनुः) दुग्धदात्री गौरिव (सरस्वती) प्रशस्तशिक्षायुक्ता वाणी ॥६५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यथा धेनुः सरस्वती परिस्रुता सहर्तुथा शशमान इन्द्रो वनस्पतिर्मधु कीलालमश्विभ्यां च कामान् दोग्धि, तथाऽहं दुहे ॥६५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सद्वैद्याः शुद्धेभ्यो वनस्पतिभ्यः सारग्रहणाय प्रयतन्ते, तथा सर्वैः प्रयतितव्यम् ॥६५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे चांगले उत्तम वनस्पतीद्वारे रस प्राप्त करतात तसा सर्वांनी प्रयत्न केला पाहिजे.