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आ म॒न्द्रैरि॑न्द्र॒ हरि॑भिर्या॒हि म॒यूर॑रोमभिः। मा त्वा॒ के चि॒न्नि य॑म॒न् विं न पा॒शिनोऽति॒ धन्वे॑व॒ ताँ२ऽइ॑हि ॥५३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। म॒न्द्रैः। इ॒न्द्र॒। हरि॑भि॒रिति॒ हरि॑ऽभिः। या॒हि। म॒यूर॑रोमभि॒रिति॑ म॒यूर॑रोमऽभिः। मा। त्वा॒। के। चि॒त्। नि। य॒म॒न्। विम्। न। पा॒शिनः॑। अ॒ति॒धन्वे॒वेत्य॑ति॒धन्व॑ऽइव। तान्। इ॒हि॒ ॥५३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:53


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) उत्तम ऐश्वर्य्य के बढ़ानेहारे सेनापति ! (मन्द्रैः) प्रशंसायुक्त (मयूररोमभिः) मोर के रोमों के सदृश रोमोंवाले (हरिभिः) घोड़ों से युक्त होके (तान्) उन शत्रुओं के जीतने को (याहि) जा, वहाँ (त्वा) तुझ को (पाशिनः) बहुत पाशों से युक्त व्याध लोग (विम्) पक्षी को बाँधने के (न) समान (केचित्) कोई भी (मा) मत (नियमन्) बाँधें, तू (अतिधन्वेव) बड़े धनुष्धारी के समान (आ, इहि) अच्छे प्रकार आओ ॥५३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब शत्रुओं के विजय को जावें, तब सब ओर से अपने बल की परीक्षा कर पूर्ण सामग्री से शत्रुओं के साथ युद्ध करके अपना विजय करें, जैसे शत्रु लोग अपने को वश न करें वैसा युद्धारम्भ करें ॥५३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(आ) (मन्द्रैः) प्रशंसितैः (इन्द्र) परमैश्वर्यवर्द्धक (हरिभिः) अश्वैः (याहि) (मयूररोमभिः) मयूरस्य रोमाणीव रोमा येषां ते (मा) (त्वा) त्वाम् (केचित्) (नि) विनिग्रहार्थे (यमन्) यच्छेयुः (विम्) पक्षिणम् (न) इव (पाशिनः) बहुपाशयुक्ता व्याधाः (अतिधन्वेव) महेष्वासा इव (तान्) (इहि) ॥५३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र सेनेश ! त्वं मन्द्रैर्मयूररोमभिर्हरिभिस्तान् शत्रून् विजेतुं याहि, तत्र त्वा त्वां पाशिनो विन्न केचिन्मा नियमंस्त्वमतिधन्वेवैहि ॥५३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा शूराः शत्रुविजयाय गच्छेयुस्तदा सर्वतो बलं समीक्ष्याऽलं सामग्र्या शत्रुभिस्सह युध्वा स्वविजयं कुर्युर्यथा शत्रवो वशं न कुर्युस्तथाऽनुतिष्ठन्तु ॥५३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. शत्रूवर विजय मिळवायचा असेल तर सर्व बाजूंनी आपल्या शक्तीची परीक्षा करून संपूर्ण शस्रास्रांसह शत्रूंबरोबर युद्ध करावे व विजय प्राप्त करावा. आपला पराभव होणार नाही या दृष्टीने युद्धारंभ करावा.