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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब विद्वानों के विषय में शरीरसम्बन्धी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जो (बभ्र्वै) बल के धारण करनेहारे (सुरायै) सोम वा (मदे) आनन्द के लिये महौषधियों के रस को (सिञ्चन्ति) जाठराग्नि में सींचते सेवन करते (परि, सिञ्चन्ति) सब ओर से पीते (उत्सिञ्चन्ति) उत्कृष्टता से ग्रहण करते (च) और (पुनन्ति) पवित्र होते हैं, वे शरीर और आत्मा के बल को प्राप्त होते हैं और जो (किन्त्वः) क्या वह (किन्त्वः) क्या और ऐसा (वदति) कहता है, वह कुछ भी नहीं पाता है ॥२८ ॥
भावार्थभाषाः - जो अन्नादि को पवित्र और संस्कार कर उत्तम रसों से युक्त करके युक्त आहार-विहार से खाते पीते हैं, वे बहुत सुख को प्राप्त होते हैं, जो मूढ़ता से ऐसा नहीं करता, वह बलबुद्धिहीन हो निरन्तर दुःख को भोगता है ॥२८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ विद्वद्विषये शारीरिकविषयमाह ॥
अन्वय:
(सिञ्चन्ति) (परि) सर्वतः (सिञ्चन्ति) (उत्) (सिञ्चन्ति) (पुनन्ति) पवित्रीभवन्ति (च) (सुरायै) सोमाय (बभ्र्वै) बलधारकाय (मदे) आनन्दाय (किन्त्वः) किमसौ (वदति) (किन्त्वः) किमन्यः ॥२८ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - ये बभ्र्वै सुरायै मदे महौषधिरसं सिञ्चन्ति परिसिञ्चन्त्युत्सिञ्चन्ति पुनन्ति च, ते शरीरात्मबल-माप्नुवन्ति, यः किन्त्वः किन्त्वश्चेति वदति, स किञ्चिदपि नाप्नोति ॥२८ ॥
भावार्थभाषाः - येऽन्नादीनि पवित्रीकृत्य संस्कृत्योत्तमरसैः परिषिच्य युक्ताहारविहारेण भुञ्जते, ते बहुसुखं लभन्ते। यो मूढतयैवं नाचरति, स बलबुद्धिहीनः सततं दुःखं भुङ्क्ते ॥२८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे लोक अन्न संस्कारित करून शुद्ध करतात व रसयुक्त आहार, विहार करतात ते अत्यंत सुखी होतात. जे मूढ लोक असे करत नाहीत ते बल व बुद्धीने हीन बनून सतत दुःख भोगतात.