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स॒मु॒द्रे ते॒ हृद॑यम॒प्स्व᳕न्तः सं त्वा॑ विश॒न्त्वोष॑धीरु॒तापः॑। सु॒मि॒त्रि॒या न॒ऽआप॒ऽओष॑धयः सन्तु दुर्मित्रि॒यास्तस्मै॑ सन्तु॒ यो᳕ऽस्मान् द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मः ॥१९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒मु॒द्रे। ते॒। हृद॑यम्। अ॒प्स्वित्य॒प्सु। अ॒न्तरित्य॒न्तः। सम्। त्वा॒। वि॒श॒न्तु॒। ओष॑धीः। उ॒त। आपः॑। सु॒मि॒त्रि॒या इति॑ सुऽमित्रि॒याः। नः॒। आपः॑। ओष॑धयः। स॒न्तु॒। दु॒र्मि॒त्रि॒या इति॑ दुःऽमित्रि॒याः। तस्मै॑। स॒न्तु॒। यः। अ॒स्मान्। द्वेष्टि॑। यम्। च॒। व॒यम्। द्वि॒ष्मः ॥१९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:19


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शिष्य ! (ते) तेरा (हृदयम्) हृदय (समुद्रे) आकाशस्थ (अप्सु) प्राणों के (अन्तः) बीच में हो (त्वा) तुझ को (ओषधीः) ओषधियाँ (सम्, विशन्तु) अच्छे प्रकार प्राप्त हों (उत) और (आपः) प्राण वा जल अच्छे प्रकार प्रविष्ट हों, जिससे (नः) हमारे लिये (आपः) जल और (ओषधयः) ओषधि (सुमित्रियाः) उत्तम मित्र के समान सुखदायक (सन्तु) हों, (यः) जो (अस्मान्) हमारा (द्वेष्टि) द्वेष करे (यम्, च) और जिसका (वयम्) हम (द्विष्मः) द्वेष करें, (तस्मै) उसके लिये ये सब (दुर्मित्रियाः) शत्रुओं के समान (सन्तु) होवें ॥१९ ॥
भावार्थभाषाः - अध्यापक लोगों को इस प्रकार करने की इच्छा करना चाहिये कि जिससे शिक्षा करने योग्य मनुष्य अवकाशसहित प्राण तथा ओषधियों की विद्या के जाननेहारे शीघ्र हों। ओषधि, जल और प्राण अच्छे प्रकार सेवा किये हुए मित्र के समान विद्वानों की पालना करें और अविद्वान् लोगों को शत्रु के समान पीड़ा देवें, उनका सेवन और उनका त्याग अवश्य करें ॥१९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(समुद्रे) अन्तरिक्षे (ते) तव (हृदयम्) आत्मबलं जीवनहेतुस्थानम् (अप्सु) प्राणेषु (अन्तः) अन्तःकरणम् (सम्) सम्यगर्थे (त्वा) (विशन्तु) (ओषधीः) ओषध्यः (उत) (आपः) प्राणाः (सुमित्रियाः) सुमित्रा इव (नः) अस्मभ्यम् (आपः) प्राणा जलानि वा (ओषधयः) सोमयवाद्याः (सन्तु) (दुर्मित्रियाः) दुर्मित्राः शत्रव इव (तस्मै) (सन्तु) (यः) (अस्मान्) (द्वेष्टि) (यम्) (च) (वयम्) (द्विष्मः) अप्रीतयामः ॥१९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शिष्य ! ते हृदयं समुद्रे अप्स्वन्तरस्तु, त्वौषधीः संविशन्तूतापः संविशन्तु, यतो न आप ओषधयश्च सुमित्रियाः सन्तु, योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तस्मै दुर्मित्रियाः सन्तु ॥१९ ॥
भावार्थभाषाः - अध्यापकैरेवं चिकीर्षितव्यं येन शिक्षणीया मनुष्या सावकाशाः प्राणौषधीविद्यावेत्तारः सद्यः स्युः। ओषधय आपः प्राणाश्च सम्यक् सेविता मित्रवद् विदुषः पालयेयुरविदुषश्च शत्रुवत् पीडयेयुस्तेषां सेवनं तेषां त्यागश्चावश्यं कर्त्तव्यः ॥१९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - अध्यापकांनी अशी इच्छा बाळगावी की, सुशिक्षित माणसांनी अवकाशासह प्राणविद्या व औषधांची विद्या ताबडतोब जाणावी. औषध, जल व प्राण यांच्याकडून मित्रांप्रमाणे सुखदायक बनून विद्वानांचे पालन व्हावे. अविद्वान लोकांना शत्रूप्रमाणे त्यांच्याकडून (औषध, जल व प्राण इत्यादींकडून) त्रास व्हावा.