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ये रू॒पाणि॑ प्रतिमु॒ञ्चमा॑ना॒ऽअसु॑राः॒ सन्तः॑ स्व॒धया॒ चर॑न्ति। प॒रा॒पुरो॑ नि॒पुरो॒ ये भर॑न्त्य॒ग्निष्टाँल्लो॒कात् प्रणु॑दात्य॒स्मात् ॥३०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ये। रू॒पाणि॑। प्र॒ति॒मु॒ञ्चमा॑ना॒ इति॑ प्रतिऽमुञ्चमा॑नाः। असु॑राः। सन्तः॑। स्व॒धया॑। चर॑न्ति। प॒रा॒पुर॒ इति॑ परा॒ऽपुरः॑। नि॒ऽपुर॒ इति॑ नि॒पुरः॑। ये। भर॑न्ति। अ॒ग्निः। तान्। लो॒कात्। प्र। नु॒दा॒ति॒। अ॒स्मात् ॥३०॥

यजुर्वेद » अध्याय:2» मन्त्र:30


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्त असुर कैसे लक्षणोंवाले होते हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो दुष्ट मनुष्य (रूपाणि) ज्ञान के अनुकूल अपने अन्तःकरणों में विचारे हुए भावों को (प्रतिमुञ्चमानाः) दूसरे के सामने छिपा कर विपरीत भावों के प्रकाश करने हारे (असुराः) धर्म को ढाँपते (सन्तः) हैं। (स्वधया) पृथिवी में जहाँ-तहाँ (चरन्ति) जाते-आते हैं तथा जो (परापुरः) संसार से उलटे अपने सुखकारी कामों को नित्य सिद्ध करने के लिये यत्न करने (निपुरः) और दुष्ट स्वभावों को परिपूर्ण करनेवाले (सन्तः) हैं अर्थात् जो अन्याय से औरों के पदार्थों को धारण करते हैं, (तान्) उन दुष्टों को (अग्निः) जगदीश्वर (अस्मात्) इस प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लोक से (प्रणुदाति) दूर करे ॥३०॥
भावार्थभाषाः - जो दुष्ट मनुष्य अपने मन, वचन और शरीर से झूठे आचरण करते हुए अन्याय से अन्य प्राणियों को पीड़ा देकर अपने सुख के लिये औरों के पदार्थों को ग्रहण कर लेते हैं, ईश्वर उन को दुःखयुक्त करता है और नीच योनियों में जन्म देता है कि वे अपने पापों के फलों को भोग के फिर भी मनुष्य देह के योग्य होते हैं। इस से सब मनुष्यों को योग्य है कि ऐसे दुष्ट मनुष्य वा पापों से बचकर सदैव धर्म का ही सेवन किया करें ॥३०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कीदृग्लक्षणास्तेऽसुरा भवन्तीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(ये) मनुष्याः (रूपाणि) अन्तःस्थानि ज्ञानमध्ये यादृशानि ज्ञानानि सन्ति तानि (प्रतिमुञ्चमानाः) आभिमुख्यं ये प्रतीतं मुञ्चन्ते त्यजन्ति ते (असुराः) धर्म्माच्छादकाः (सन्तः) वर्त्तमानाः (स्वधया) पृथिव्या सह। स्वधे इति द्यावापृथिव्योर्नामसु पठितम् (निघं०३.३०) (चरन्ति) वर्त्तन्ते (परापुरः) परागतानि स्वसुखार्थान्यधर्मकार्य्याणि पिपुरति ते (निपुरः) निकृष्टान् दुष्टस्वभावान् पिपुरति पूरयन्ति ते। अत्रोभयत्र क्विप् (ये) स्वार्थसाधनतत्पराः (भरन्ति) अन्यायेन परपदार्थान् धरन्ति (अग्निः) जगदीश्वरः। युष्मत्तत्ततक्षुष्वन्तःपादम् (अष्टा०८.३.१०३) अनेन मूर्द्धन्यादेशः (तान्) दुष्टान् (लोकात्) स्थानादस्मद्दर्शनाद्वा (प्रणुदाति) दूरीकरोतु (अस्मात्) प्रत्यक्षात् ॥ अयं मन्त्रः (शत०२.४.२.१४-१८) ॥३०॥

पदार्थान्वयभाषाः - अग्निरीश्वरो ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति, ये च पुरापुरो निपुरः सन्तोऽन्यायेन परपदार्थान् भरन्ति धरन्ति, तानस्माल्लोकात् प्रणुदाति दूरीकरोतु ॥३०॥
भावार्थभाषाः - ये दुष्टा मनुष्या मनोदेहवाग्भिर्मिथ्या चरित्वा पृथिव्यामन्यायेनान्यान् प्राणिनः पीडयित्वा स्वसुखाय परपदार्थान् सञ्चिन्वन्ति। ईश्वरस्तान् दुःखयुक्तान् मनुष्येतरनीचशरीरधारिणः कृत्वा, तेषु पापफलानि भुक्त्वा पुनर्मनुष्यदेहधारणे योग्यान् करोति। अतो मनुष्यैरीदृशेभ्यो मनुष्येभ्यः पापकर्मभ्यो वा पृथक् स्थित्वा सदैव धर्म एव सेवनीय इति ॥३०॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी दुष्ट माणसे मन, वचन व शरीर यांनी वाईट वर्तन करून अन्यायाने इतर प्राण्यांना त्रास देतात व आपल्या सुखासाठी इतरांचे पदार्थ हिरावून घेतात. ईश्वर त्यांना नीच योनीत जन्म देऊन दुःख भोगावयास लावतो ते आपल्या पापाचे फळ भोगून पुन्हा मनुष्यदेह प्राप्त करतात. त्यासाठी दुष्ट माणसांपासून व पापांपासून सावध राहावे व सदैव धर्माचे पालन करावे.