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कस्त्वा॒ विमु॑ञ्चति॒ स त्वा॒ विमु॑ञ्चति॒ कस्मै॑ त्वा॒ विमु॑ञ्चति॒ तस्मै॑ त्वा॒ विमु॑ञ्चति॒। पोषा॑य॒ रक्ष॑सां भा॒गो᳖ऽसि ॥२३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

कः। त्वा॒। वि। मु॒ञ्च॒ति॒। सः। त्वा॒। वि। मु॒ञ्च॒ति॒। कस्मै॑। त्वा॒। वि। मु॒ञ्च॒ति॒। तस्मै॑। त्वा॒। वि। मु॒ञ्च॒ति॒। पोषा॑य। रक्ष॑साम्। भा॒गः। अ॒सि॒ ॥२३॥

यजुर्वेद » अध्याय:2» मन्त्र:23


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अग्नि में किसलिये पदार्थ छोड़ा जाता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कः) कौन सुख चाहनेवाला यज्ञ का अनुष्ठाता पुरुष (त्वा) उस यज्ञ को (विमुञ्चति) छोड़ता है अर्थात् कोई नहीं। और जो कोई यज्ञ को छोड़ता है (त्वा) उस को (सः) यज्ञ का पालन करने हारा परमेश्वर भी (विमुञ्चति) छोड़ देता है। जो यज्ञ का करनेवाला मनुष्य पदार्थ समूह को यज्ञ में छोड़ता है, (त्वा) उस को (कस्मै) किस प्रयोजन के लिये अग्नि के बीच में (विमुञ्चति) छोड़ता है, (तस्मै) जिससे सब सुख प्राप्त हो तथा (पोषाय) पुष्टि आदि गुण के लिये (त्वा) उस पदार्थ समूह को (विमुञ्चति) छोड़ता है। जो पदार्थ सब के उपकार के लिये यज्ञ के बीच में नहीं युक्त किया जाता, वह (रक्षसाम्) दुष्ट प्राणियों का (भागः) अंश (असि) होता है ॥२३॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य ईश्वर के करने-कराने वा आज्ञा देने के योग्य व्यवहार को छोड़ता है, वह सब सुखों से हीन होकर और दुष्ट मनुष्यों से पीड़ा पाता हुआ सब प्रकार दुःखी रहता है। किसी ने किसी से पूछा कि जो यज्ञ को छोड़ता है, उसके लिये क्या होता है? वह उत्तर देता है कि ईश्वर भी उसको छोड़ देता है। फिर वह पूछता है कि ईश्वर उसको किसलिये छोड़ देता है? वह उत्तर देनेवाला कहता है कि दुःख भोगने के लिये। जो ईश्वर की आज्ञा को पालता है, वह सुखों से युक्त होने योग्य है और जो कि छोड़ता है, वह राक्षस हो जाता है ॥२३॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अग्नौ द्रव्यं किमर्थं प्रक्षिप्यत इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(कः) सुखकारी यजमानः (त्वा) तम् (वि) विविधार्थे क्रियायोगे। व्यपेत्येतस्य प्रातिलोम्यं प्राह (निरु०१.३) (मुञ्चति) त्यजति (सः) यज्ञः (त्वा) त्वाम् (वि) विशेषार्थे (मुञ्चति) त्यजति (कस्मै) प्रयोजनाय (त्वा) त्वां (वि) विविक्तार्थे (मुञ्चति) प्रक्षिपति (तस्मै) यतः सर्वसुखप्राप्तिर्भवेत् तस्मै (त्वा) पदार्थसमूहम् (वि) विशिष्टार्थे (मुञ्चति) त्यजति (पोषाय) पुष्यन्ति प्राणिनो यस्मिन् व्यवहारे तस्मै (रक्षसाम्) दुष्टानाम् (भागः) भजनीयः (असि) भवन्ति ॥ अयं मन्त्रः (शत०१.९.२.३३-३५) व्याख्यातः ॥२३॥

पदार्थान्वयभाषाः - को मनुष्यस्त्वा तं यज्ञं विमुञ्चति कोऽपि नेत्यर्थः। यश्च यज्ञं विमुञ्चति तं स यज्ञः परमेश्वरो विमुञ्चति। यज्ञकर्त्ता कस्मै प्रयोजनाय तं पदार्थसमूहमग्नौ विमुञ्चति, यतः सर्वसुखप्राप्तिर्भवेत् तस्मै। पोषाय त्वा तं विमुञ्चति, किन्तु यः पदार्थः सर्वोपकारे यज्ञे न प्रयुज्यते स रक्षसां भागोऽसि भवति ॥२३॥
भावार्थभाषाः - यो मनुष्य ईश्वरेण वेदद्वाराऽऽज्ञापितं व्यवहारं त्यजति स सर्वैः सुखैर्हीनो भूत्वा दुष्टैः पीडितः सन् सर्वदा दुःखी भवति। केनचित् कंचित् प्रति पृष्टं यो यज्ञं त्यजति तस्मै किं भवतीति। स आह, ईश्वरोऽपि तं त्यजतीति। स पुनराह ईश्वरः कस्मै प्रयोजनाय तं त्यजतीति। स ब्रूते तस्मै दुःखमेव स्यादित्यस्मै। यश्चेश्वराज्ञां पालयति, स सुखैः पोषितुमर्हति, यश्च त्यजति स एव राक्षसो भवतीति ॥२३॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ ः जो मनुष्य ईश्वरी नियमांचे पालन करीत नाही, त्याच्या आज्ञेचे उल्लंघन करतो तो सर्व सुखांपासून वंचित होतो. दुष्ट माणसे त्याला त्रास देतात व तो सर्व प्रकारे दुःखी होतो. एखाद्या माणसाने दुसऱ्या माणसाला विचारले, ‘यज्ञ करणे सोडल्यास काय होते?’ तर तो उत्तर देईल की, ईश्वरही त्याला सोडून जातो. पुन्हा तो प्रश्न विचारतो, ‘ईश्वर त्याचा त्याग का करतो?’ तेव्हा उत्तर देणारा म्हणतो, ‘दुःख भोगण्यासाठी’. जो ईश्वराच्या आज्ञेचे पालन करतो तो सर्व सुख भोगतो व जो ईश्वरी आज्ञा पाळत नाही तो राक्षस बनतो.