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सं ब॒र्हिर॑ङ्क्ता ह॒विषा॑ घृ॒तेन॒ समा॑दि॒त्यैर्वसु॑भिः॒ सम्म॒रुद्भिः। समिन्द्रो॑ वि॒श्वदे॑वेभिरङ्क्तां दि॒व्यं नभो॑ गच्छतु॒ यत् स्वाहा॑ ॥२२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्। ब॒र्हिः। अ॒ङ्क्ता॒म्। ह॒विषा॑। घृ॒तेन॑। सम्। आ॒दि॒त्यैः। वसु॑भि॒रिति॒ वसु॑ऽभिः। सम्। म॒रुद्भि॒रिति॑ म॒रुत्ऽभिः॑। सम्। इन्द्रः॑। वि॒श्वदे॑वेभि॒रिति॑ वि॒श्वऽदे॑वेभिः। अ॒ङ्क्ता॒म्। दि॒व्यम्। नभः॑। ग॒च्छ॒तु॒। यत्। स्वाहा॑ ॥२२॥

यजुर्वेद » अध्याय:2» मन्त्र:22


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

यज्ञ में चढ़ा हुआ पदार्थ अन्तरिक्ष में ठहर कर किसके साथ रहता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! तुम (यत्) जब हवन करने योग्य द्रव्य को (हविषा) होम करने योग्य (घृतेन) घी आदि सुगन्धियुक्त पदार्थ से संयुक्त करके हवन करोगे, तब वह (आदित्यैः) बारह महीनों (वसुभिः) अग्नि आदि आठों निवास के स्थान और (मरुद्भिः) प्रजा के जनों के साथ मिल के सुख को (समङ्क्ताम्) अच्छी प्रकार प्रकाश करेगा। (इन्द्रः) सूर्य्यलोक जो यज्ञ में छोड़ा हुआ (स्वाहा) उत्तम क्रिया से सुगन्ध्यादि पदार्थयुक्त हवि (संगच्छतु) पहुँचाता है, उससे (सम्) अच्छी प्रकार मिश्रित हुए (विश्वदेवेभिः) अपनी किरणों से (दिव्यम्) जो उस के प्रकाश में इकट्ठा होनेवाला (नभः) जल को (समङ्क्ताम्) अच्छी प्रकार प्रकट करता है ॥२२॥
भावार्थभाषाः - जो हवि अच्छी प्रकार शुद्ध किया हुआ यज्ञ के निमित्त अग्नि में छोड़ा जाता है, वह अन्तरिक्ष में वायु जल और सूर्य्य की किरणों के साथ मिल कर इधर-उधर फैल कर आकाश में ठहरनेवाले सब पदार्थों को दिव्य करके अच्छी प्रकार प्रजा को सुखी करता है। इससे मनुष्यों को उत्तम सामग्री और उत्तम-उत्तम साधनों से उक्त तीन प्रकार के यज्ञ का नित्य अनुष्ठान करना चाहिये ॥२२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अग्नौ हुतं द्रव्यमन्तरिक्षस्थं भूत्वा केन चरतीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(सम्) एकीभावे क्रियायोगे (बर्हिः) बृहन्ते सर्वे पदार्था यस्मिन् तदन्तरिक्षम्। बर्हिरित्यन्तरिक्षनामसु पठितम् (निघं०१.३) (अङ्क्ताम्) संयोजयतु (हविषा) होतुमर्हं शुद्धं संस्कृतं हविस्तेन (घृतेन) सुगन्ध्यादिगुणयुक्तेनाज्येन सह (सम्) संयोगार्थे (आदित्यैः) द्वादशभिर्मासैः (वसुभिः) अग्न्यादिभिरष्टभिः (सम्) मिश्रीभावे (मरुद्भिः) वायुविशेषैः सह (सम्) मेलने (इन्द्रः) सूर्य्यलोकः (विश्वदेवेभिः) स्वकीयै रश्मिभिः। रश्मयो ह्यस्य विश्वेदेवाः (शत०३.९.२.६) (अङ्क्ताम्) प्रकटं संयोजयति (दिव्यम्) दिवि प्रकाशे भवम्। द्युप्रागपागुदक्प्रतीचो यत् (अष्टा०४.२.१०९) इति शैषिको यत्। (नभः) जलम्। नभ इत्युदकनामसु पठितम् (निघं०१.१२) (गच्छतु) गच्छति (यत्) यदा (स्वाहा) शोभनं हविर्जुहोति यया क्रियया सा ॥ अयं मन्त्रः (शत०१.७.३.२९-३१) व्याख्यातः ॥२२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! भवानिदं यद्यदा होतव्यं द्रव्यं हविषा घृतेन सह संयुक्तं कृत्वाऽऽदित्यैर्वसुभिर्मरुद्भिः सह सुखं समङ्क्ताम्। अयमिन्द्रो यज्ञे स्वाहा यत्सुगन्ध्यादि द्रव्ययुक्तं हविः समङ्क्ताम्, यत्संमिश्रितैर्विश्वदेवेभिर्दिव्यं नभः संगच्छतु सम्यक् प्रकटयति ॥२२॥
भावार्थभाषाः - यज्ञे संशोधितं यद्धविरग्नौ प्रक्षिप्यते तदन्तरिक्षे वायुजलसूर्य्यकिरणैः सह वर्त्तमानमितस्ततो गत्वाऽऽकाशस्थान् सर्वान् पदार्थान् दिव्यान् कृत्वा सततं प्रजाः सुखयति तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैरुत्तमसामग्र्या श्रेष्ठैः साधनैस्त्रिविधो यज्ञो नित्यमनुष्ठेय इति ॥२२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी आहुती शुद्ध करून यज्ञाग्नीत टाकली जाते ती अंतरिक्षात वायू, जल व सूर्यकिरणांशी संयुक्त होते व अंतरिक्षातील इकडे तिकडे पसरलेल्या सर्व पदार्थांमध्ये दिव्यत्व निर्माण करते. त्यामुळे सर्व लोक सुखी होतात. यासाठी माणसांनी उत्तम पदार्थ व साधनांनी वरील तीन प्रकारच्या यज्ञाचे सदैव अनुष्ठान करावे.