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मयी॒दमिन्द्र॑ऽइन्द्रि॒यं द॑धात्व॒स्मान् रायो॑ म॒घवा॑नः सचन्ताम्। अ॒स्माक॑ꣳ सन्त्वा॒शिषः॑ स॒त्या नः॑ सन्त्वा॒शिष॒ऽउप॑हूता पृथि॒वी मा॒तोप॒ मां पृ॑थि॒वी मा॒ता ह्व॑यताम॒ग्निराग्नी॑ध्रा॒त् स्वाहा॑ ॥१०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मयि॑। इ॒दम्। इन्द्रः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। द॒धा॒तु। अ॒स्मान्। रायः॑। म॒घवा॒न॒ इति॑ म॒घऽवा॑नः। स॒च॒न्ता॒म्। अ॒स्माक॑म्। स॒न्तु॒। आ॒शिष॒ इत्या॒ऽशिषः॑। स॒त्याः। नः॒। स॒न्तु॒। आ॒शिष॒ इत्या॒ऽशिषः॑। उप॑हू॒तेत्युप॑ऽहूता। पृ॒थि॒वी। मा॒ता। उप॑। माम्। पृ॒थि॒वी। मा॒ता। ह्व॒य॒ता॒म्। अ॒ग्निः। आग्नी॑ध्रात्। स्वाहा॑ ॥१०॥

यजुर्वेद » अध्याय:2» मन्त्र:10


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में उक्त यज्ञ से उत्पन्न होनेवाले फल का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) परमेश्वर (मयि) मुझ में (इदम्) प्रत्यक्ष (इन्द्रियम्) ऐश्वर्य की प्राप्ति के चिह्न तथा परमेश्वर ने जो अपने ज्ञान से देखा वा प्रकाशित किया है और जो सब सुखों को सिद्ध करानेवाले जो विद्वानों को दिया है, जिस को वे इन्द्र अर्थात् विद्वान् लोग प्रीतिपूर्वक सेवन करते हैं, उन्हें तथा (रायः) विद्या सुवर्ण वा चक्रवर्त्ति राज्य आदि धनों को (दधातु) नित्य स्थापन करें और उसकी कृपा से तथा हमारे पुरुषार्थ से (मघवानः) जिनमें कि बहुत धन, राज्य आदि पदार्थ विद्यमान हैं, जिन करके हम लोग पूर्ण ऐश्वर्य्ययुक्त हों, वैसे धन (नः) हम विद्वान् धर्मात्मा लोगों को (सचन्ताम्) प्राप्त हों तथा इसी प्रकार (अस्माकम्) हम परोपकार करनेवाले धर्मात्माओं की (आशिषः) कामना (सत्याः) सिद्ध (सन्तु) हों और ऐसे ही (नः) हमारी (आशिषः) न्यायपूर्वक इच्छायुक्त जो क्रिया हैं, वे भी (सत्याः) सिद्ध (सन्तु) हों तथा इसी प्रकार (माता) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि से मान्य करनेहारी विद्या और (पृथिवी) बहुत सुख देनेवाली भूमि है, (उपहूता) जिसको राज्य आदि सुख के लिये मनुष्य क्रम से प्राप्त होते हैं, वह (माम्) सुख की इच्छा करनेवाले मुझको (उपह्वयताम्) अच्छी प्रकार उपदेश करती है तथा मेरा अनुष्ठान किया हुआ यह (अग्निः) जिस भौतिक अग्नि को कि (आग्नीध्रात्) इन्धनादि से प्रज्वलित करते हैं, वह वाञ्छित सुखों का करनेवाला होकर (नः) हमारे सुखों का आगमन करावे, क्योंकि ऐसे ही अच्छी प्रकार होम को प्राप्त होके चाहे हुए कार्यों को सिद्ध करनेहारा होता है (स्वाहा) सब मनुष्यों के करने के लिये वेदवाणी इस कर्म को कहती है ॥१०॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य पुरुषार्थी, परोपकारी, ईश्वर के उपासक हैं, वे ही श्रेष्ठ ज्ञान, उत्तम धन और सत्य कामनाओं को प्राप्त होते हैं, और नहीं। जो सब को मान्य देने के कारण इस मन्त्र में पृथिवी शब्द से भूमि और विद्या का प्रकाश किया है, सो ये सब मनुष्यों को उपकार में लाने के योग्य हैं। ईश्वर ने इस वेदमन्त्र से यही प्रकाशित किया है तथा जो नवम मन्त्र से अग्नि आदि पदार्थों से इच्छित सुख की प्राप्ति कही है, वही बात दशम मन्त्र से प्रकाशित की है ॥१०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ तज्जन्यं फलमुपदिश्यते ॥

अन्वय:

(मयि) आत्मनि (इदम्) यच्छुद्धं ज्ञानयुक्तं साधुकारि प्रत्यक्षं तत् (इन्द्रः) परमेश्वरः (इन्द्रियम्) इन्द्रस्यैश्वर्य्यप्राप्तेर्लिङ्गं चिह्नमिन्द्रेण परमेश्वरेण दृष्टमिन्द्रेण परमेश्वरेण सृष्टं प्रकाशितमिन्द्रेण विद्यावता जीवेन जुष्टं संप्रीत्या सेवितमिन्द्रेण परमेश्वरेण यद्दत्तं सर्वसुखज्ञानसाधकम्। इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा (अष्टा०५.२.९३) अनेनोक्तेष्वर्थेष्विन्द्रियशब्दो निपातितः (दधातु) नित्यं धारयतु (अस्मान्) मनुष्यान् (रायः) विद्यासुवर्णचक्रवर्त्तिराज्यादिधनानि। राय इति धननामसु पठितम् (निघं०२.१०) (मघवानः) मघानि बहूनि धनानि विद्यन्ते येष्वैश्वर्य्ययोगेषु ते। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। मघमिति धननामधेयं मंहतेर्दानकर्मणः (निरु०१.७) (सचन्ताम्) समवेताः प्राप्ता भवन्तु (अस्माकम्) परोपकारिणां धार्मिकाणां मानवानाम् (सन्तु) भवन्तु (आशिषः) कामनाः (सत्याः) सिद्धाः (नः) अस्माकं विद्यावतां राज्यसेविनाम् (सन्तु) भवन्तु (आशिषः) न्यायेच्छाविशिष्टाः क्रियाः। शास इत्त्वे आशासः क्वावुपसंख्यानम् (अष्टा०६.४.४.३४) अनेन वार्त्तिकेनाशीरिति सिद्धः (उपहूता) उपहूयते जनै राज्यसुखार्थं या (पृथिवी) पृथुसुखनिमित्ता (माता) मान्यकरणहेतुः (उप) गतार्थे (माम्) सुखार्थिनं धार्मिकम् (पृथिवी) पृथुसुखदात्री विद्या (माता) धर्मार्थकाममोक्षसिद्ध्या मान्यदात्री (ह्वयताम्) स्पर्धतामुपदिशताम् (अग्निः) ईश्वरः (आग्नीध्रात्) अग्निरिध्यते प्रदीप्यते यस्मिन् तस्येदं शरणमाश्रयणं तस्मात्। अग्नीधः शरणे रञ् भं च (अष्टा०४.३.१२०) अनेन वार्त्तिकेनाधिकरणवाचिनः क्बिन्ताद् ‘अग्नीध्’ प्रातिपदिकादञ् प्रत्ययः (स्वाहा) सुहुतमाह यया सा ॥ अयं मन्त्रः (शत०१.६.३.३९-४४) व्याख्यातः ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - इन्द्रो मयीदमिन्द्रियं रायश्च दधातु तत्कृपया स्वपुरुषार्थेन च यथा वयं मघवानो भवेम, तथाऽस्मान् रायः सचन्ताम्, एवं चास्माकमाशिषः सत्याः सन्त्वेवं मातेयं पृथिवी विद्योपहूता च सती मामुपाह्वयतामुपदिशताम्। तथा मयाऽनुष्ठितोऽयमग्निराग्नीध्रादिष्टकृत्सन् नोऽस्माकं सुखान्युपह्वयति एवं सम्यग्घुतमिष्टकारि भवतीति स्वाहा वेदवाण्याह ॥१०॥
भावार्थभाषाः - ये पुरुषार्थिन ईश्वरोपासकास्त एव शोभनं मनः, श्रेष्ठान्युत्तमानि धनानि, सत्या इच्छाश्च प्राप्नुवन्ति, नेतरे। सर्वस्य मान्यप्राप्तिहेतुत्वाद् भूमिविद्ये पृथिवीशब्देनात्र प्रकाशिते स्तः। सर्वैरेते सदोपकर्त्तव्ये भवत इतीश्वरोऽनेन वेदमन्त्रेणाह। नवममन्त्रेणाग्न्यादिभ्यः साधितेभ्य इष्टसुखप्राप्तिरुदिता, सैवानेन दशमेन मन्त्रेण प्रकाशितेति ॥१०॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे पुरुषार्थी, परोपकारी व ईश्वरभक्त असतात त्यांनाच श्रेष्ठ ज्ञान, उत्तम धन प्राप्त होते व त्यांच्या सर्व कामना पूर्ण होतात, इतरांच्या नव्हेत. या मंत्रात पृथ्वी या शब्दाचा अर्थ भूमी व विद्येचा प्रकाश असा केलेला आहे. तो सर्वांनी जाणावा, मान्य करावा व त्याचा लाभ घ्यावा. ईश्वराने या वेदमंत्रात हाच अर्थ प्रकट केलेला आहे. नवव्या मंत्रात अग्नीपासून इच्छित सुख मिळावे असे म्हटलेले आहे. तेच दहाव्या मंत्रातही स्पष्ट केलेले आहे.