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अ॒श्विभ्यां॒ चक्षु॑र॒मृतं॒ ग्रहा॑भ्यां॒ छागे॑न॒ तेजो॑ ह॒विषा॑ शृ॒तेन॑। पक्ष्मा॑णि गो॒धूमैः॒ कुव॑लैरु॒तानि॒ पेशो॒ न शु॒क्रमसि॑तं वसाते ॥८९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। चक्षुः॑। अ॒मृत॑म्। ग्रहा॑भ्याम्। छागे॑न। तेजः॑। ह॒विषा॑। शृ॒तेन॑। पक्ष्मा॑णि। गो॒धूमैः॑। कुव॑लैः। उ॒तानि॑। पेशः॑। न। शु॒क्रम्। असि॑तम्। व॒सा॒ते॒ऽइति॑ वसाते ॥८९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:89


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (ग्रहाभ्याम्) ग्रहण करनेहारे (अश्विभ्याम्) बहुभोजी स्त्री-पुरुषों के साथ कोई भी विदुषी स्त्री और विद्वान् पुरुष (उतानि) विने हुए विस्तृत वस्त्र और (पक्ष्माणि) ग्रहण किये हुए अन्य रेशम और द्विशाले आदि को (वसाते) ओढ़ें, पहनें वा जैसे आप भी (छागेन) अजा आदि के दूध के साथ और (शृतेन) पकाये हुए (हविषा) ग्रहण करने योग्य होम के पदार्थ के साथ (तेजः) प्रकाशयुक्त (अमृतम्) अमृतस्वरूप (चक्षुः) नेत्र को (कुवलैः) अच्छे शब्दों और (गोधूमैः) गेहूँ के साथ (शुक्रम्) शुद्ध (असितम्) काले (पेशः) रूप के (न) समान स्वीकार करें, वैसे अन्य गृहस्थ भी करें ॥८९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे क्रिया किये हुए स्त्री-पुरुष प्रियदर्शन, प्रियभोजनशील, पूर्णसामग्री को ग्रहण करनेहारे होते हैं, वैसे अन्य गृहस्थ भी होवें ॥८९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अश्विभ्याम्) बहुभोजिभ्यां स्त्रीपुरुषाभ्याम् (चक्षुः) नेत्रम् (अमृतम्) अमृतात्मकम् (ग्रहाभ्याम्) यौ गृह्णीतस्ताभ्याम् (छागेन) अजादिदुग्धेन (तेजः) प्रकाशयुक्तम् (हविषा) आदातुमर्हेण (शृतेन) परिपक्वेन (पक्ष्माणि) परिगृहीतान्यन्यानि (गौधूमैः) (कुवलैः) सुशब्दैः (उतानि) संततानि वस्त्राणि (पेशः) रूपम् (न) इव (शुक्रम्) शुद्धम् (असितम्) कृष्णम् (वसाते) वसेताम् ॥८९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यथा ग्रहाभ्यामश्विभ्यां सह कौचिद्विद्वांसौ स्त्रीपुरुषावुतानि पक्ष्माणि वसाते, यथा वा भवन्तोऽपि छागेनाऽजादिदुग्धेन शृतेन हविषा सह तेजोऽमृतं चक्षुः कुवलैर्गोधूमैः शुक्रमसितं पेशो न स्वीक्रियेरंस्तथाऽन्ये गृहस्था अपि कुर्य्युः ॥८९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा कृतक्रियौ स्त्रीपुरुषौ प्रियदर्शनौ प्रियभोजिनौ गृहीतपूर्णसामग्रीकौ भवतस्तथान्ये गृहस्था अपि भवेयुः ॥८९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे क्रियाशील स्री-पुरुष सुंदर वस्रालंकारांनी दर्शनीय बनून उत्तम भोजन करून निरनिराळ्या प्रकारच्या वस्तूंचा संग्रह करतात तसे इतर गृहस्थांनीही करावे.