ये चे॒ह पि॒तरो॒ ये च॒ नेह याँश्च॑ वि॒द्म याँ२ऽउ॑ च॒ न प्र॑वि॒द्म। त्वं वे॑त्थ॒ यति॒ ते जा॑तवेदः स्व॒धाभि॑र्य॒ज्ञꣳ सुकृ॑तं जुषस्व ॥६७ ॥
ये। च॒। इ॒ह। पि॒तरः॑। ये। च॒। न। इ॒ह। यान्। च॒। वि॒द्म। यान्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। च॒। न। प्र॒वि॒द्मेति॑ प्रऽवि॒द्म। त्वम्। वे॒त्थ॒। यति॑। ते। जा॒त॒वे॒द॒ इति॑ जातऽवेदः। स्व॒धाभिः॑। य॒ज्ञम्। सुकृ॑त॒मिति॒ सुऽकृ॑तम्। जु॒ष॒स्व॒ ॥६७ ॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
(ये) (च) (इह) (पितरः) (ये) (च) (न) (इह) (यान्) (च) (विद्म) जानीमः (यान्) (उ) वितर्के (च) (न) (प्रविद्म) (त्वम्) (वेत्थ) (यति) या सङ्ख्या येषान्तान् (ते) (जातवेदः) जाता वेदः प्रज्ञा यस्य तत्सम्बुद्धौ। हे विद्वन् ! (स्वधाभिः) (यज्ञम्) (सुकृतम्) सुष्ठु कर्माणि क्रियन्ते यस्मिन् (जुषस्व) सेवस्व ॥६७ ॥