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अङ्गि॑रसो नः पि॒तरो॒ नव॑ग्वा॒ऽअथ॑र्वाणो॒ भृग॑वः सो॒म्यासः॑। तेषां॑ व॒यꣳ सु॑म॒तौ य॒ज्ञिया॑ना॒मपि॑ भ॒द्रे सौमन॒से स्या॑म ॥५० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अङ्गि॑रसः। नः॒। पि॒तरः॑। नव॑ग्वा॒ इति॒ नव॑ऽग्वाः। अथ॑र्वाणः। भृग॑वः। सो॒म्यासः॑। तेषा॑म्। व॒यम्। सु॒म॒ताविति॑ सुऽम॒तौ। य॒ज्ञिया॑नाम्। अपि॑। भ॒द्रे। सौ॒म॒न॒से। स्या॒म॒ ॥५० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:50


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

माता-पिता और सन्तानों को परस्पर कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (नः) हमारे (अङ्गिरसः) सब विद्याओं के सिद्धान्तों को जानने और (नवग्वाः) नवीन ज्ञान के उपदेशों को करानेहारे (अथर्वाणः) अहिंसक (भृगवः) परिपक्वविज्ञानयुक्त (सोम्यासः) ऐश्वर्य पाने योग्य (पितरः) पितादि ज्ञानी लोग हैं, (तेषाम्) उन (यज्ञियानाम्) उत्तम व्यवहार करनेहारों की (सुमतौ) सुन्दर प्रज्ञा और (भद्रे) कल्याणकारक (सौमनसे) प्राप्त हुए श्रेष्ठ बोध में (वयम्) हम लोग प्रवृत्त (स्याम) होवें, वैसे तुम (अपि) भी होओ ॥५० ॥
भावार्थभाषाः - सन्तानों को योग्य है कि जो-जो पिता आदि बड़ों का धर्मयुक्त कर्म होवे, उस-उस का सेवन करें और जो-जो अधर्मयुक्त हो, उस-उस को छोड़ देवें, ऐसे ही पिता आदि बड़े लोग भी सन्तानों के अच्छे-अच्छे गुणों का ग्रहण और बुरों का त्याग करें ॥५० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पितृसन्तानैरितरेतरं कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(अङ्गिरसः) सर्वविद्यासिद्धान्तविदः (नः) अस्माकम् (पितरः) पालकाः (नवग्वाः) (अथर्वाणः) अहिंसकाः (भृगवः) परिपक्वविज्ञानाः (सोम्यासः) ये सोममैश्वर्यमर्हन्ति ते (तेषाम्) (वयम्) (सुमतौ) शोभना चासौ मतिश्च तस्याम् (यज्ञियानाम्) ये यज्ञमर्हन्ति तेषाम् (अपि) (भद्रे) कल्याणकरे (सौमनसे) शोभनं मनः सुमनस्तस्य भावे (स्याम) भवेम ॥५० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! ये नोऽङ्गिरसो नवग्वा अथर्वाणो भृगवः सोम्यासः पितरः सन्ति, तेषां यज्ञियानां सुमतौ भद्रे सौमनसे वयं प्रवृत्तास्स्यामैवं यूयमपि भवत ॥५० ॥
भावार्थभाषाः - अपत्यैर्यद्यत् पितॄणां धर्म्यं कर्म तत्तत् सेवनीयं यद्यदधर्म्यं तत्तत् त्यक्तव्यं पितृभिरप्येवं समाचरणीयम् ॥५० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - संतानांनी पिता वगैरेंचे जे धर्मयुक्त कर्म असेल ते स्वीकारावे व जे अधर्मयुक्त असेल ते सोडून द्यावे, तसेच पिता वगैरे मोठ्या माणसांनी संतानांचे चांगले गुण स्वीकारावे व वाईटाचा त्याग करावा.