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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (दीद्यत्) प्रकाशमान (देव) विद्या के देनेहारे (अग्ने) विद्वन् ! आप (पवित्रेण) शुद्ध (शुक्रेण) वीर्य=पराक्रम से स्वयं पवित्र होकर (मा) मुझ को इससे (अनु, पुनीहि) पीछे पवित्र कर अपनी (क्रत्वा) बुद्धि वा कर्म से अपनी प्रज्ञा और कर्म को पवित्र करके हमारी (क्रतून्) बुद्धियों वा कर्मों को पुनः-पुनः पवित्र किया करो ॥४० ॥
भावार्थभाषाः - पिता, अध्यापक और उपदेशक लोग स्वयं धार्मिक और विद्वान् होकर अपने सन्तानों को भी ऐसे ही धार्मिक योग्य विद्वान् करें ॥४० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(पवित्रेण) शुद्धेन (पुनीहि) (मा) (शुक्रेण) वीर्येण पराक्रमेण (देव) विद्यादातः (दीद्यत्) प्रकाशमान (अग्ने) विद्वन् (क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा (क्रतून्) प्रज्ञा कर्माणि वा (अनु) ॥४० ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे दीद्यद्देवाग्ने ! त्वं पवित्रेण शुक्रेण स्वयं पवित्रो भूत्वा मा माञ्चैतेनानु पुनीहि, स्वस्य क्रत्वा प्रज्ञया कर्मणा वा स्वां प्रज्ञा स्वं कर्म च पवित्रीकृत्यास्माकं क्रतूननु पुनीहि ॥४० ॥
भावार्थभाषाः - पित्रध्यापकोपदेशकाः स्वयं धार्मिका विद्वांसो भूत्वा स्वसन्तानानपीदृशानेव योग्यान् धार्मिकान् विदुषः कुर्य्युः ॥४० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - पिता, अध्यापक, उपदेशक यांनी स्वतः धार्मिक व विद्वान बनून आपल्या संतानांनाही धार्मिक व योग्य विद्वान बनवावे.