अब सभापति तथा सेनापति के कर्त्तव्य को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (यविष्ठ) पूर्ण युवास्था को प्राप्त राजन् ! (त्वम्) तू (दाशुषः) विद्यादाता (नॄन्) मनुष्यों की (पाहि) रक्षा कर और इनकी (गिरः) विद्या शिक्षायुक्त वाणियों को (शृणुधि) सुन। जो वीर पुरुष युद्ध में मर जावे, उसके (तोकम्) छोटे सन्तानों की (उत) और स्त्री आदि की भी (त्मना) आत्मा से (रक्ष) रक्षा कर ॥७७ ॥
भावार्थभाषाः - सभा और सेना के अधिष्ठाताओं को दो कर्म अवश्य कर्त्तव्य हैं, एक विद्वानों का पालन और उनके उपदेश का श्रवण, दूसरा युद्ध में मरे हुओं के सन्तान, स्त्री आदि का पालन। ऐसे आचरण करनेवाले पुरुष के सदैव विजय, धन और सुख की वृद्धि होती है ॥७७ ॥ इस अठारहवें अध्याय में गणितविद्या राजा प्रजा और पढ़ने पढ़ाने हारे पुरुषों के कर्म आदि के वर्णन से इस अध्याय में कहे हुए अर्थों की पूर्व अध्याय में कहे हुए अर्थों के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां परमविदुषां श्रीविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्येण श्रीदयानदसरस्वतीस्वामिना निर्मिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्येऽष्टादशोऽध्यायः सम्पूर्णः ॥१८॥