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स नो॑ भुवनस्य पते प्रजापते॒ यस्य॑ तऽउ॒परि॑ गृ॒हा यस्य॑ वे॒ह। अ॒स्मै ब्रह्म॑णे॒ऽस्मै क्ष॒त्राय॒ महि॒ शर्म॑ यच्छ॒ स्वाहा॑ ॥४४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। नः॒। भु॒व॒न॒स्य॒। प॒ते॒। प्र॒जा॒प॒त॒ इति॑ प्रजाऽपते। यस्य॑। ते॒। उ॒परि॑। गृ॒हा। यस्य॑। वा॒। इ॒ह। अ॒स्मै। ब्रह्म॑णे। अ॒स्मै। क्ष॒त्राय॑। महि॑। शर्म॑। य॒च्छ॒। स्वाहा॑ ॥४४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:44


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (भुवनस्य) घर के (पते) स्वामी (प्रजापते) प्रजा की रक्षा करनेवाले पुरुष ! (इह) इस संसार में (यस्य) जिस (ते) तेरे (उपरि) अति उच्चता को देनेहारे उत्तम व्यवहार में (गृहाः) पदार्थों के ग्रहण करनेहारे गृहस्थ मनुष्य आदि (वा) वा (यस्य) जिसकी सब उत्तम क्रिया हैं (सः) सो तू (नः) हमारे (अस्मै) इस (ब्रह्मणे) वेद और ईश्वर के जाननेहारे मनुष्य तथा (अस्मै) इस (क्षत्राय) राजधर्म में निरन्तर स्थित क्षत्रिय के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया से (महि) बहुत (शर्म) घर और सुख को (यच्छ) दे ॥४४ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विद्वानों और क्षत्रियों के कुल को नित्य बढ़ाते हैं, वे अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं ॥४४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(सः) विद्वान् (नः) अस्माकम् (भुवनस्य) गृहस्य (पते) स्वामिन् (प्रजापते) प्रजापालक (यस्य) (ते) तव (उपरि) ऊर्ध्वमुत्कृष्टे व्यवहारे (गृहाः) ये गृह्णन्ति ते गृहस्थादयः (यस्य) (वा) (इह) अस्मिन् संसारे (अस्मै) (ब्रह्मणे) वेदेश्वरविदे जनाय (अस्मै) (क्षत्राय) राजधर्मनिष्ठाय (महि) महत् (शर्म) गृहं सुखं वा (यच्छ) देहि (स्वाहा) सत्यया क्रियया ॥४४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे भुवनस्य पते प्रजापते ! इह यस्य ते तवोपरि गृहा वा यस्य सर्वाः शुभाः क्रियाः सन्ति, स त्वं नोऽस्मै ब्रह्मणेऽस्मै क्षत्राय स्वाहा महि शर्म यच्छ ॥४४ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या विद्वत्कुलं राजकुलं च नित्यं वर्द्धयन्ति, ते महत्सुखमाप्नुवन्ति ॥४४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे विद्वानांचे व क्षत्रियांचे कुल सदैव उन्नत करतात त्यांना अत्यंत सुख प्राप्त होते.