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सु॒षु॒म्णः सूर्य॑रश्मिश्च॒न्द्रमा॑ गन्ध॒र्वस्तस्य॒ नक्ष॑त्राण्यप्स॒रसो॑ भे॒कुर॑यो॒ नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॑ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥४० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒षु॒म्णः। सु॒सु॒म्न इति॑ सुऽसु॒म्नः। सूर्य॑रश्मि॒रिति॒ सूर्य॑ऽरश्मिः। च॒न्द्रमाः॑। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। नक्ष॑त्राणि। अ॒प्स॒रसः॑। भे॒कुर॑यः। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥४० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:40


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को चन्द्र आदि लोकों से उपकार लेना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (सूर्य्यरश्मिः) सूर्य की किरणोंवाला (सुषुम्णः) जिससे उत्तम सुख होता और (गन्धर्वः) जो सूर्य की किरणों को धारण किये है, वह (चन्द्रमाः) सब को आनन्दयुक्त करनेवाला चन्द्रलोक है (तस्य) उसके जो (नक्षत्राणि) अश्विनी आदि नक्षत्र और (अप्सरसः) आकाश में विद्यमान किरणें (भेकुरयः) प्रकाश को करनेवाली (नाम) प्रसिद्ध हैं, वे चन्द्र की अप्सरा हैं (सः) वह जैसे (नः) हम लोगों के (इदम्) इस (ब्रह्म) पढ़ानेवाले ब्राह्मण और (क्षत्रम्) दुष्टों के नाश करनेहारे क्षत्रियकुल की (पातु) रक्षा करे (तस्मै) उक्त उस प्रकार के चन्द्रलोक के लिये (वाट्) कार्यनिर्वाहपूर्वक (स्वाहा) उत्तम क्रिया और (ताभ्यः) उन किरणों के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया तुम लोगों को प्रयुक्त करनी चाहिये ॥४० ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चन्द्र आदि लोकों से भी उनकी विद्या से सुख सिद्ध करना चाहिये ॥४० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैश्चन्द्रादिभ्य उपकारो ग्राह्य इत्याह ॥

अन्वय:

(सुषुम्णः) सुशोभनं सुम्नं सुखं यस्मात् सः (सूर्य्यरश्मिः) सूर्यस्य रश्मयः किरणा दीप्तयो यस्मिन् सः (चन्द्रमाः) यस्सर्वान् चन्दत्याह्लादयति सः (गन्धर्वः) यो गाः सूर्यकिरणान् धरति सः (तस्य) (नक्षत्राणि) अश्विन्यादीनि (अप्सरसः) आकाशगताः किरणाः (भेकुरयः) या भां दीप्तिं कुर्वन्ति ताः। पृषोदरादिनाऽभीष्टरूपसिद्धिः (नाम) प्रसिद्धिः (सः) (नः) अस्मभ्यम् (इदम्) (ब्रह्म) अध्यापककुलम् (क्षत्रम्) दुष्टनाशकं कुलम् (पातु) रक्षतु (तस्मै) (स्वाहा) (वाट्) (ताभ्यः) (स्वाहा) ॥४० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यः सूर्यरश्मिः सुषुम्णो गन्धर्वश्चन्द्रमा अस्ति, यास्तस्य नक्षत्राण्यप्सरसो भेकुरयो नाम सन्ति, स यथा न इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तथा विधाय तस्मै वाट् स्वाहा ताभ्यः स्वाहा युष्माभिः संप्रयोज्या ॥४० ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैश्चन्द्रादिभ्योऽपि तद्विद्यया सुखं साधनीयम् ॥४० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सूर्यरश्मिपासून चंद्र तेज धारण करतो त्या चंद्रासंबंधीची विद्या जाणून माणसांनी त्यापासून सुख प्राप्त करावे.