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ऋ॒ता॒षाडृ॒तधा॑मा॒ग्निर्ग॑न्ध॒र्वस्तस्यौष॑धयोऽप्स॒रसो॒ मुदो॒ नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥३८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒ता॒षा॒ट्। ऋ॒तधा॒मेत्यृ॒तऽधा॑मा। अ॒ग्निः। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। ओष॑धयः। अ॒प्स॒रसः॑। मुदः॑। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥३८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:38


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (ऋताषाट्) सत्य व्यवहार को सहनेवाला (ऋतधामा) जिसके ठहरने के लिये ठीक-ठीक स्थान है, वह (गन्धर्वः) पृथिवी को धारण करनेहारा (अग्निः) आग के समान है, वह (तस्य) उसकी (ओषधयः) ओषधि (अप्सरसः) जो कि जलों में दौड़ती हैं, वे (मुदः) जिनमें आनन्द होता है, ऐसे (नाम) नामवाली हैं (सः) वह (नः) हम लोगों के (इदम्) इस (ब्रह्म) ब्रह्म को जाननेवालों के कुल और (क्षत्रम्) राज्य वा क्षत्रियों के कुल की (पातु) रक्षा करे, (तस्मै) उसके लिये (स्वाहा) सत्य वाणी (वाट्) जिससे कि व्यवहारों को यथायोग्य वर्त्ताव में लाता है और (ताभ्यः) उक्त उन ओषधियों के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया हो ॥३८ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अग्नि के समान दुष्ट शत्रुओं के कुल को दुःखरूपी अग्नि में जलानेवाला और ओषधियों के समान आनन्द का करनेवाला हो, वही समस्त राज्य की रक्षा कर सकता है ॥३८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

(ऋताषाट्) य ऋतं सत्यं व्यवहारं सहते सः (ऋतधामा) ऋतं यथार्थं धाम स्थित्यर्थं स्थानं यस्य सः (अग्निः) पावकः (गन्धर्वः) यो गां पृथिवीं धरति सः (तस्य) (ओषधयः) (अप्सरसः) या अप्सु सरन्ति ताः (मुदः) मोदन्ते यासु ताः (नाम) ख्यातिः (सः) (नः) अस्माकम् (इदम्) (ब्रह्म) ब्रह्मवित् कुलम् (क्षत्रम्) राजन्यकुलम् (पातु) रक्षतु (तस्मै) (स्वाहा) सत्या वाणी (वाट्) येन वहति सः (ताभ्यः) (स्वाहा) सत्या क्रिया ॥३८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! य ऋताषाडृतधामा गन्धर्वोऽग्निरिवास्ति, तस्यौषधयोऽप्सरसो मुदो नाम सन्ति, स न इदं ब्रह्म क्षत्रं च पातु, तस्मै स्वाहा वाट् ताभ्यः स्वाहाऽस्तु ॥३८ ॥
भावार्थभाषाः - यो जनोऽग्निवच्छत्रुदाहक ओषधिवदानन्दकारी भवेत्, स एव सर्वं राज्यं रक्षितुं शक्नोति ॥३८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो माणूस दुष्ट शत्रू कुलाला दुःखरूपी अग्नीत जाळणारा व औषधा प्रमाणे इतरांना आनंद देणारा असेल तोच संपूर्ण राज्याचे रक्षण करू शकतो.