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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्य जल के रस को जाननेवाले हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! तू (पृथिव्याम्) पृथिवी पर जिस (पयः) जल वा दुग्ध आदि के रस (ओषधीषु) ओषधियों में जिस (पयः) रस (दिवि) शुद्ध निर्मल प्रकाश वा (अन्तरिक्षे) सूर्य और पृथिवी के बीच में जिस (पयः) रस को (धाः) धारण करता है, उस सब (पयः) जल वा दुग्ध के रस को मैं भी धारण करूँ, जो (प्रदिशः) दिशा-विदिशा (पयस्वतीः) बहुत रसवाली तेरे लिये (सन्तु) हों, वे (मह्यम्) मेरे लिये भी हों ॥३६ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य बल आदि पदार्थों से युक्त पृथिवी आदि से उत्तम अन्न और रसों का संग्रह करके खाते और पीते हैं, वे नीरोग होकर सब विद्याओं में कार्य की सिद्धि कर तथा जा आ सकते और बहुत आयुवाले होते हैं ॥३६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्या जलरसविदः स्युरित्याह ॥
अन्वय:
(पयः) जलरसश्च (पृथिव्याम्) (पयः) (ओषधीषु) (पयः) (दिवि) शुद्धे प्रकाशे (अन्तरिक्षे) सूर्यपृथिव्योर्मध्ये (पयः) रसम् (धाः) दधीथाः (पयस्वतीः) पयो बहुरसो विद्यते यासु ताः (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशः (सन्तु) (मह्यम्) ॥३६ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वंस्त्वं पृथिव्यां यत्पय ओषधीषु यत्पयो दिव्यन्तरिक्षे यत्पयो धास्तत्सर्वं पयोऽहमपि धरामि। याः प्रदिशः पयस्वतीस्तुभ्यं सन्तु, ता मह्यमपि भवन्तु ॥३६ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या जलादिसंयुक्तेभ्यः पृथिव्यादिभ्य उत्तमान्नान् रसांश्च संगृह्य खादन्ति पिबन्ति च, तेऽरोगा भूत्वा सर्वासु दिक्षु कार्यं साद्धुं गन्तुमागन्तुं वा शक्नुवन्ति, दीर्घायुषश्च जायन्ते ॥३६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे जलांनीयुक्त असलेल्या पृथ्वीवरील उत्तम अन्न व (जल, दुग्ध वगैरे) रसांचा संग्रह करून खान, पान करतात ती निरोगी बनतात. अशी माणसे दशदिशांना जाणे-येणे करून कार्य सिद्ध करू शकतात व दीर्घायू बनतात.