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एका॑ च मे ति॒स्रश्च॑ मे ति॒स्रश्च॑ मे॒ पञ्च॑ च मे॒ पञ्च॑ च मे स॒प्त च॑ मे स॒प्त च॑ मे॒ नव॑ च मे॒ नव॑ च म॒ऽएका॑दश च म॒ऽएका॑दश च मे॒ त्रयो॑दश च मे॒ त्रयो॑दश च मे॒ पञ्च॑दश च मे॒ पञ्च॑दश॒ च मे स॒प्तद॑श च मे स॒प्तद॑श च मे॒ नव॑दश च मे॒ नव॑दश च मऽएक॑विꣳशतिश्च म॒ऽएक॑विꣳशतिश्च मे॒ त्रयो॑विꣳशतिश्च मे त्रयो॑विꣳशतिश्च मे॒ पञ्च॑विꣳशतिश्च मे॒ पञ्च॑विꣳशतिश्च मे स॒प्तवि॑ꣳशतिश्च मे स॒प्तवि॑ꣳशतिश्च मे॒ नव॑विꣳशतिश्च मे॒ नव॑विꣳशतिश्च म॒ऽएक॑त्रिꣳशच्च म॒ऽएक॑त्रिꣳशच्च मे॒ त्रय॑स्त्रिꣳशच्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥२४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

एका॑। च॒। मे॒। ति॒स्रः। च॒। मे॒। ति॒स्रः। च॒। मे॒। पञ्च॑। च॒। मे॒। पञ्च॑। च॒। मे॒। स॒प्त। च॒। मे॒। स॒प्त। च॒। मे। नव॑। च॒। मे॒। नव॑। च॒। मे॒। एका॑दश। च॒। मे॒। एका॑दश। च॒। मे॒। त्रयो॑द॒शेति॒ त्रयः॑ऽदश। च॒। मे॒। त्रयो॑द॒शेति॒ त्रयः॑ऽदशः। च॒। मे॒। पञ्च॑द॒शेति॒ पञ्च॑ऽदश। च॒। मे॒। पञ्च॑द॒शेति॒ पञ्च॑दश। च॒। मे॒। स॒प्तद॒शेति॒ स॒प्तऽद॑श। च॒। मे॒। स॒प्तद॒शेति॒ स॒प्तऽद॑श। च॒। मे॒ नव॑द॒शेति॒ नव॑ऽदश। च॒। मे॒। नव॑द॒शेति॒ नव॑ऽदश। च॒। मे॒। एक॑विꣳशति॒रित्येक॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। एक॑विꣳशति॒रित्येक॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। त्रयो॑विꣳशति॒रिति॒ त्रयः॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। त्रयो॑विꣳशति॒रिति॒ त्रयः॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। पञ्च॑विꣳशति॒रिति॒ पञ्च॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। पञ्च॑विऽꣳशतिरिति॒ पञ्च॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। स॒प्तवि॑ꣳशति॒रिति॑ स॒प्तऽवि॑ꣳशतिः। च॒। मे॒। स॒प्तवि॑ꣳशति॒रिति॑ स॒प्तऽवि॑ꣳशतिः। च॒। मे॒। नव॑विꣳशति॒रिति॒ नव॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। नव॑विꣳशति॒रिति॒ नव॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। एक॑त्रिꣳश॒दित्येक॑ऽत्रिꣳशत्। च॒। मे॒। एक॑त्रिꣳश॒दित्येक॑ऽत्रिꣳशत्। च॒। मे॒। त्रय॑स्त्रिꣳश॒दिति॒ त्रयः॑ऽत्रिꣳशत्। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:24


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गणितविद्याया के मूल का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञेन) मेल करने अर्थात् योग करने से (मे) मेरी (एका) एक संख्या (च) और दो (मे) मेरी (तिस्रः) तीन संख्या (च) फिर (मे) मेरी (तिस्रः) तीन (च) और दो (मे) मेरी (पञ्च) पाँच (च) फिर (मे) मेरी (पञ्च) पाँच (च) और दो (मे) मेरी (सप्त) सात (च) फिर (मे) मेरी (सप्त) सात (च) और दो (मे) मेरी (नव) नौ (च) फिर (मे) मेरी (नव) नौ (च) और दो (मे) मेरी (एकादश) ग्यारह (च) फिर (मे) मेरी (मे) मेरी (एकादश) ग्यारह (च) और दो (मे) मेरी (त्रयोदश) तेरह (च) फिर (मे) मेरी (त्रयोदश) तेरह (च) और दो (मे) मेरी (पञ्चदश) पन्द्रह (च) फिर (मे) मेरी (पञ्चदश) पन्द्रह (च) और दो (मे) मेरी (सप्तदश) सत्रह (च) फिर (मे) मेरी (सप्तदश) सत्रह (च) और दो (मे) मेरी (नवदश) उन्नीस (च) फिर (नवदश) उन्नीस (च) और दो (मे) मेरी (एकविंशतिः) इक्कीस (च) फिर (मे) मेरी (एकविंशतिः) इक्कीस (च) और दो (मे) मेरी (त्रयोविंशतिः) तेईस (च) फिर (मे) मेरी (त्रयोविंशतिः) तेईस (च) और दो (मे) मेरी (पञ्चविंशतिः) पच्चीस (च) फिर (मे) मेरी (पञ्चविंशतिः) पच्चीस (च) और दो (मे) मेरी (सप्तविंशतिः) सत्ताईस (च) फिर (मे) मेरी (सप्तविंशतिः) सत्ताईस (च) और दो (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) फिर (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) और दो (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) फिर (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) और दो (मे) मेरी (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस (च) और आगे भी इसी प्रकार संख्या (कल्पन्ताम्) समर्थ हों। यह एक योगपक्ष है ॥१ ॥२४ ॥ अब दूसरा पक्ष−(यज्ञेन) योग से विपरीत दानरूप वियोगमार्ग से विपरीत संगृहीत (च) और संख्या दो के वियोग अर्थात् अन्तर से [जैसे] (मे) मेरी (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, वैसे (मे) मेरी (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस संख्या (च) दो के देने अर्थात् वियोग से (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) फिर (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) दो के वियोग से (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) फिर (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) दो के वियोग से (मे) मेरी (सप्तविंशतिः) सत्ताईस समर्थ हों, ऐसे सब संख्याओं में जानना चाहिये ॥ यह वियोग से दूसरा पक्ष है ॥२ ॥२४ ॥ अब तीसरा (मे) मेरी (एका) एक संख्या (च) और (मे) मेरी (तिस्रः) तीन संख्या (च) परस्पर गुणी, (मे) मेरी (तिस्रः) तीन संख्या (च) और (मे) मेरी (पञ्च) पाँच संख्या (च) परस्पर गुणित, (मे) मेरी (पञ्च) पाँच संख्या (च) और (मे) मेरी (सप्त) सात संख्या (च) परस्पर गुणित, (मे) मेरी (सप्त) सात संख्या (च) और (मे) मेरी (नव) नव संख्या (च) परस्पर गुणित, (मे) मेरी (नव) नव संख्या (च) और (मे) मेरी (एकादश) ग्यारह संख्या (च) परस्पर गुणित, इस प्रकार अन्य संख्या (यज्ञेन) उक्त बार-बार योग अर्थात् गुणन से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों। यह गुणन विषय से तीसरा पक्ष है ॥३ ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में (यज्ञेन) इस पद से जोड़ना-घटाना लिये जाते हैं, क्योंकि जो यज धातु का सङ्गतिकरण अर्थ है, उससे सङ्ग कर देना अर्थात् किसी संख्या को किसी संख्या से योग कर देना वा यज धातु का जो दान अर्थ है, उससे ऐसी सम्भावना करनी चाहिये कि किसी संख्या का दान अर्थात् व्यय करना निकाल-डालना यही अन्तर है। इस प्रकार गुणन, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भागजाति, प्रभागजाति आदि जो गणित के भेद हैं, वे योग और अन्तर से ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि किसी संख्या को किसी संख्या से एक बार मिला दे तो योग कहाता है, जैसे २+४=६ अर्थात् २ में ४ जोड़ें तो ६ होते हैं। ऐसे यदि अनेक वार संख्या में संख्या जोड़ें तो उसको गुणन कहते हैं, जैसे अर्थात् २*४=८, २ को ४ वार अलग अलग जोड़ें वा २ को ४ चार से गुणे तो ८ होते हैं। ऐसे ही ४ को ४ चौगुना कर दिया तो ४ का वर्ग १६ हुए, ऐसे ही अन्तर से भाग, वर्गमूल, घनमूल आदि निष्पन्न होते हैं अर्थात् किसी संख्या को जोड़ देवे वा किसी प्रकारान्तर से घटा देवे, इसी योग वा वियोग से बुद्धिमानों की यथामति कल्पना से व्यक्त, अव्यक्त, अङ्कगणित और बीजगणित आदि समस्त गणितक्रिया उत्पन्न होती हैं। इस कारण इस मन्त्र में दो के योग से उत्तरोत्तर संख्या वा दो के वियोग से पूर्व पूर्व संख्या अच्छे प्रकार दिखलाई हैं, वैसे गुणन का भी कुछ प्रकार दिखलाया है, यह जानना चाहिये ॥२४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ गणितविद्याया मूलमुपदिश्यते ॥

अन्वय:

(एका) एकत्वविशिष्टा सङ्ख्या (च) (मे) (तिस्रः) त्रित्वविशिष्टा संख्या (च) (मे) (तिस्रः) (च) (मे) (पञ्च) पञ्चत्वविशिष्टा गणना (च) (मे) (पञ्च) (च) (मे) (सप्त) सप्तत्वविशिष्टा गणना (च) (मे) (सप्त) (च) (मे) (नव) नवत्वविशिष्टा संख्या (च) (मे) (नव) (च) (मे) (एकादश) एकाधिका दश (च) (मे) (एकादश) (च) (मे) (त्रयोदश) त्र्यधिका दश (च) (मे) (त्रयोदश) (च) (मे) (पञ्चदश) पञ्चोत्तर दश (च) (मे) (पञ्चदश) (च) (मे) (सप्तदश) सप्ताधिका दश (च) (मे) (सप्तदश) (च) (मे) (नवदश) नवोत्तरा दश (च) (मे) (नवदश) (च) (मे) (एकविंशतिः) एकाधिका विंशतिः (च) (मे) (एकविंशतिः) (च) (मे) (त्रयोविंशतिः) त्र्यधिका विंशतिः (च) (मे) (त्रयोविंशतिः) (च) (मे) (पञ्चविंशतिः) पञ्चाधिका विंशतिः (च) (मे) (पञ्चविंशतिः) (च) (मे) (सप्तविंशतिः) सप्ताधिका विंशतिः (च) (मे) (सप्तविंशतिः) (च) (मे) (नवविंशतिः) नवाधिका विंशतिः (च) (मे) (नवविंशतिः) (च) (मे) (एकत्रिंशत्) एकाधिका त्रिंशत् (च) (मे) (एकत्रिंशत्) (च) (मे) (त्रयस्त्रिंशत्) त्र्यधिकास्त्रिंशत् (च) (मे) (यज्ञेन) सङ्गतिकरणेन योगेन दानेन वियोगेन वा (कल्पन्ताम्) ॥२४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यज्ञेन सङ्गतिकरणेन म एका संख्या च-द्वे मे तिस्रः, च-पुनर्मे तिस्रश्च-द्वे मे पञ्च, च-पुनर्मे पञ्च च-द्वे मे सप्त, च-पुनर्मे सप्त च-द्वे मे नव, च-पुनर्मे नव च-द्वे म एकादश, च-पुनर्म एकादश च-द्वे मे त्रयोदश, च-पुनर्मे त्रयोदश च-द्वे मे पञ्चदश, च-पुनर्मे पञ्चदश च-द्वे मे सप्तदश, च-पुनर्मे सप्तदश च-द्वे मे नवदश, च-पुनर्मे नवदश च-द्वे म एकविंशतिः, च-पुनर्मे एकविंशतिश्च-द्वे मे त्रयोविंशतिः, च-पुनर्मे त्रयोविंशतिश्च-द्वे मे पञ्चविंशतिः, च-पुनर्मे पञ्चविंशतिश्च-द्वे मे सप्तविंशतिः, च-पुनर्मे सप्तविंशतिश्च-द्वे मे नवविंशतिः, च-पुनर्मे नवविंशतिश्च-द्वे म एकत्रिंशच्च, पुनर्म एकत्रिंशच्च-द्वे मे त्रयस्त्रिंशच्चादग्रेऽप्येवं संख्याः कल्पन्ताम् ॥ इत्येको योगपक्षः ॥१ ॥२४ ॥ अथ द्वितीयः पक्षः−यज्ञेन योगतो विपरीतेन दानरूपेण वियोगमार्गेण विपरीताः संगृहीताश्चान्यान्याः संख्या द्वयोर्वियोगेन यथा मे कल्पन्तां तथा मे त्रयस्त्रिंशच्च-द्वयोर्दानेन वियोगेन म एकत्रिंशत्, च-पुनर्मे ममैकत्रिंशच्च-द्वयोर्वियोगेन मे नवविंशतिः, च-पुनर्मे नवविंशतिश्च द्वयोर्वियोगेन मे सप्तविंशतिरेवं सर्वत्र ॥ इति वियोगेनान्तरेण द्वितीयः पक्षः ॥२ ॥२४ ॥ अथ तृतीयः—म एका च मे तिस्रश्च, मे तिस्रश्च मे पञ्च च, मे पञ्च च मे सप्त च, मे सप्त च मे नव च, मे नव च म एकादश चैवंविधाः संख्याः अग्रेऽपि यज्ञेन उक्तपुनःपुनर्योगेन गुणनेन कल्पन्तां समर्था भवन्तु ॥ इति गुणनविषये तृतीयः पक्षः ॥३ ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - अस्मिन् मन्त्रे यज्ञेनेति पदेन योगवियोगौ गृह्येते कुतो यजधातोर्हि यः सङ्गतिकरणार्थस्तेन सङ्गतिकरणं कस्याश्चित् सङ्ख्यायाः कयाचिद्योगकरणं यश्च दानार्थस्तेनैवं सम्भाव्य कस्याश्चिद्दानं व्ययीकरणमिदमेवान्तरमेवं गुणनभागवर्गवर्गमूलघनघनमूलभागजातिप्रभागजातिप्रभृतयो ये गणितभेदाः सन्ति, ते योगवियोगाभ्यामेवोत्पद्यन्ते। कुतः काञ्चित् संख्यां कयाचित् संख्यया सकृत् संयोजयेत् स योगो भवति, यथा २+४=६ द्वयोर्मध्ये चत्वारो युक्ताः षट् संपद्यन्ते। इत्थमनेकवारं चेत् संख्यायां संख्यां योजयेत् तर्हि तद्गुणनमाहुः। यथा २*४=८ अर्थात् द्विरूपां संख्यां चतुर्वारं पृथक् पृथग् योजयेद्वा द्विरूपां संख्यां चतुर्भिर्गुणयेत् तदाष्टौ जायन्ते। एवं चत्वारश्चतुर्वारं युक्ता वा चतुर्भिर्गुणितास्तदा चतुर्णां वर्गः षोडश संपद्यन्ते, इत्थमन्तरेण भाग-वर्गमूल-घनमूलाद्याः क्रिया निष्पद्यन्ते अर्थात् यस्यां कस्याञ्चित् संख्यायां काञ्चित् संख्यां योजयेद्वा केनचित् प्रकारान्तरेण वियोजयेदित्यनेनैव योगेन वियोगेन वा बुद्धिमतां यथामतिकल्पनया व्यक्ताव्यक्ततराः सर्वा गणितक्रिया निष्पद्यन्तेऽतोऽत्र मन्त्रे द्वयोर्योगेनोत्तरोत्तरा द्वयोर्वियोगेन वा पूर्वा पूर्वा विषमसंख्या प्रदर्शिता तथा गुणनस्यापि कश्चित्प्रकारः प्रदर्शित इति वेदितव्यम् ॥२४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात (यज्ञेन) या पदाने बेरीज व वजाबाकी असा अर्थ घेतला जातो. कारण ‘यज’ धातूचा अर्थ संगतिकरण असा आहे. तेव्हा संगतिकरण करणे म्हणजे एखाद्या संख्येला दुसऱ्या संख्येत मिळविणे होय किंवा ‘यज’ धातूचा अर्थ दान असाही होतो. त्यावरून हे कळते की, एखाद्या संख्येचे दान करणे म्हणजे कमी, वजा करणे होय. याप्रमाणे गुणाकार, भागाकार, वर्ग, वर्गमूळ, घन, घनमूळ, भाग (जाती) , प्रभाग (प्रजाती) इत्यादी गणिताचे जे प्रकार आहेत ते बेरीज व वजाबाकीने उत्पन्न होतात. कारण एका संख्येत दुसरी संख्या मिळविल्यास होते जसे २ + ४ = ६ अर्थात् दोन (२) मध्ये चार (४) मिळविल्यास सहा (६) होतात. अशाप्रकारे अनेकवेळा एका संख्येत दुसरी मिळविल्यास गुणकार होतो. जसे २ेर्४ = ८ अर्थात् चार वेळा वेगवेगळी बेरीज किंवा २ ला ४ (चार) ने गुणल्यास ८ होतात. याप्रमाणे ४ च्या चौपट केले असता ४ चा वर्ग १६ होतो, तसेच वजा करण्याने भागाकार, वर्गमूळ, घनमूळ इत्यादी निष्पन्न होतात. तेव्हा एखाद्या संख्येत एखादी संख्या मिळविल्यास बेरीज किंवा कमी केल्यास वजाबाकी. याच बेरीज वजाबाकीने बुद्धिमान लोकांना त्यांच्या तर्कानुसार व्यक्त अव्यक्त अशा अंकगणित व बीजगणित इत्यादी सर्व गणिताच्या क्रिया उलगडतात. त्यामुळे या मंत्रात दोनच्या बेरजेने जास्त झालेली संख्या किंवा (२) दोनच्या वजाबाकीने कमी असलेली संख्या पूर्वीची संख्या चांगल्याप्रकारे दाखविलेली आहे, तसेच गुणाकाराचा काही प्रकारही दर्शविलेला आहे.