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आ॒ग्र॒य॒णश्च॑ मे वैश्वदे॒वश्च॑ मे ध्रु॒वश्च॑ मे वैश्वान॒रश्च॑ मऽऐन्द्रा॒ग्नश्च॑ मे म॒हावै॑श्वदेवश्च मे मरुत्व॒तीया॑श्च मे॒ निष्के॑वल्यश्च मे सावि॒त्रश्च॑ मे सारस्व॒तश्च॑ मे पात्नीव॒तश्च॑ मे हारियोज॒नश्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥२० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ॒ग्र॒य॒णः। च॒। मे॒। वै॒श्व॒दे॒व इति॑ वैश्वऽदे॒वः। च॒। मे॒। ध्रु॒वः। च॒। मे॒। वै॒श्वा॒न॒रः। च॒। मे॒। ऐ॒न्द्रा॒ग्नः। च॒। मे॒। म॒हावै॑श्वदेव॒ इति॑ म॒हाऽवै॑श्वदेवः। च॒। मे॒। म॒रु॒त्व॒तीयाः॑। च॒। मे॒। निष्के॑वल्यः। निःके॑वल्य॒ इति॒ निःऽके॑वल्यः। च॒। मे॒। सा॒वि॒त्रः। च॒। मे॒। सा॒र॒स्व॒तः। च॒। मे॒। पा॒त्नी॒व॒त इति॑ पात्नीऽव॒तः। च॒। मे॒। हा॒रि॒यो॒ज॒न इति॑ हारिऽयोज॒नः। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:20


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मे) मेरा (आग्रयणः) अगहन आदि महीनों में सिद्ध हुआ यज्ञ (च) और इसकी सामग्री (मे) मेरा (वैश्वदेवः) समस्त विद्वानों से सम्बन्ध करनेवाला विचार (च) और इसका फल (मे) मेरा (ध्रुवः) निश्चल व्यवहार (च) और इसके साधन (मे) मेरा (वैश्वानरः) सब मनुष्यों का सत्कार (च) तथा सत्कार करनेवाला (मे) मेरा (ऐन्द्राग्नः) पवन और बिजुली से सिद्ध काम (च) और इसके साधन (मे) मेरा (महावैश्वदेवः) समस्त बड़े लोगों का यह व्यवहार (च) इनके साधन (मे) मेरे (मरुत्वतीयाः) पवनों का सम्बन्ध करनेहारे व्यवहार (च) तथा इनका फल (मे) मेरा (निष्केवल्यः) निरन्तर केवल सुख हो जिसमें वह काम (च) और इसके साधन (मे) मेरा (सावित्रः) सूर्य का यह प्रभाव (च) और इससे उपकार (मे) मेरा (सारस्वतः) वाणी सम्बन्धी व्यवहार (च) और इनका फल (मे) मेरा (पात्नीवतः) प्रशंसित यज्ञसम्बन्धिनी स्त्रीवाले का काम (च) इसके साधन (मे) मेरा (हारियोजनः) घोड़ों को रथ में जोड़नेवाले का यह आरम्भ (च) इसकी सामग्री (यज्ञेन) पदार्थों के मेल करने से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य कार्यकाल की क्रिया और विद्वानों के सङ्ग का आश्रय लेकर विवाहित स्त्री का नियम किये हों, वे पदार्थविद्या को क्यों न जानें ॥२० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(आग्रयणः) मार्गशीर्षादिमासनिष्पन्नो यज्ञविशेषः (च) (मे) (वैश्वदेवः) विश्वेषां देवानामयं सम्बन्धी (च) (मे) (ध्रुवः) निश्चलः (च) (मे) (वैश्वानरः) विश्वेषां सर्वेषां नराणामयं सत्कारः (च) (मे) (ऐन्द्राग्नः) इन्द्रो वायुरग्निर्विद्युच्च ताभ्यां निर्वृत्तः (च) (मे) (महावैश्वदेवः) महतां विश्वेषां सर्वेषामयं व्यवहारः (च) (मे) (मरुत्वतीयाः) मरुतां सम्बन्धिनो व्यवहाराः (च) (मे) (निष्केवल्याः) नितरां केवलं सुखं यस्मिंस्तस्मिन् भवः (च) (मे) (सावित्रः) सवितुः सूर्यस्यायं प्रभावः (च) (मे) (सारस्वतः) सरस्वत्या वाण्या अयं सम्बन्धी (च) (मे) (पात्नीवतः) प्रशस्ता पत्नी यज्ञसम्बन्धिनी तद्वतोऽयम् (च) (मे) (हारियोजनः) हरीणामश्वानां योजयिता तस्यायमनुक्रमः (च) (मे) (यज्ञेन) संगतिकरणेन (कल्पन्ताम्) ॥२० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - म आग्रयणश्च मे वैश्वदेवश्च मे ध्रुवश्च मे वैश्वानरश्च म ऐन्द्राग्नश्च मे महावैश्वदेवश्च मे मरुत्वतीयाश्च मे निष्केवल्यश्च मे सावित्रश्च मे सारस्वतश्च मे पात्नीवतश्च मे हारियोजनश्च यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्यास्सामयिकीं क्रियां विद्वत्सङ्गं चाश्रित्य विवाहितस्त्रीव्रता भवेयुस्ते पदार्थविद्यां कुतो न जानीयुः ॥२० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे काळानुरूप क्रिया करून विद्वानांचा आश्रय घेतात व विवाहित स्रीशीच संग करण्याचा नियम बनवितात ती माणसे (वेगवेगळ्या) पदार्थविद्या का बरे जाणणार नाहीत?