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स नः॑ पावक दीदि॒वोऽग्ने दे॒वाँ२ऽइ॒हा व॑ह। उप॑ य॒ज्ञꣳ ह॒विश्च॑ नः ॥९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः नः॒। पा॒व॒क॒। दी॒दि॒व इति॑ दीदि॒ऽवः। अग्ने॑। दे॒वान्। इ॒ह। आ। व॒ह॒। उप॑। य॒ज्ञम्। ह॒विः। च॒। नः॒ ॥९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:9


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पावक) पवित्र (दीदिवः) तेजस्विन् वा शत्रुदाहक (अग्ने) सत्यासत्य का विभाग करनेहारे विद्वन् ! (सः) पूर्वोक्त गुणवाले आप जैसे यह अग्नि (नः) हमारे लिये अच्छे गुणोंवाले (हविः) हवन किये सुगन्धित द्रव्य को प्राप्त करता है, वैसे (इह) इस संसार में (यज्ञम्) गृहाश्रम (च) और (देवान्) विद्वानों को (नः) हम लोगों के लिये (उप, आ, वह) अच्छे प्रकार समीप प्राप्त करें ॥९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यह अग्नि अपने सूर्य्यादि रूप से सब पदार्थों से रस को ऊपर ले जा और वर्षा के उत्तम सुखों को प्रकट करता है, वैसे ही विद्वान् लोग विद्यारूप रस को उन्नति दे के सब सुखों का उत्पन्न करें ॥९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तदेवाह ॥

अन्वय:

(सः) विद्वान् (नः) अस्मभ्यम् (पावक) पवित्र (दीदिवः) तेजस्विन् शत्रुदाहक वा। दीदयतिर्ज्वलतिकर्मा ॥ (निघं०१.१६) अत्र तुजादीनाम् [अष्टा०६.१.७] इत्यभ्यासस्य दीर्घः (अग्ने) सत्यासत्यविभाजक (देवान्) विदुषः (इह) (आ) (वह) (उप) (यज्ञम्) गृहाश्रमम् (हविः) हुतं द्रव्यम् (च) (नः) अस्मभ्यम् ॥९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पावक दीदिवोऽग्ने ! स त्वं यथाऽयमग्निर्नो हविरावहति, तथेह यज्ञं देवांश्च न उपावह ॥९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यादिरूपेणायमग्निः सर्वेभ्यो रसमूर्ध्वं नीत्वा वर्षयित्वा दिव्यानि सुखानि जनयति, तथैव विद्वांसो विद्यारसमुन्नतं कृत्वा सर्वाणि सुखानि जनयेयुः ॥९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अग्नी आपल्या सूर्यरूपाने सर्व पदार्थांचा रस वर ओढून घेतो व जलाचा वर्षाव करून उत्तम सुख देतो तसे विद्वानांनी विद्यारूपी रसाची वाढ करून सुख निर्माण करावे.