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वि॒धेम॑ ते पर॒मे जन्म॑न्नग्ने वि॒धेम॒ स्तोमै॒रव॑रे स॒धस्थे॑। यस्मा॒द् योने॑रु॒दारि॑था॒ यजे॒ तं प्र त्वे ह॒वीषि॑ जुहुरे॒ समि॑द्धे ॥७५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि॒धेम॑। ते॒। प॒र॒मे। जन्म॑न्। अ॒ग्ने॒। वि॒धेम॑। स्तोमैः॑। अव॑रे। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। यस्मा॑त्। योनेः॑। उ॒दारि॒थेत्यु॒त्ऽआरि॑थ। यजे॑। तम्। प्र। त्व इति॒ त्वे। ह॒वीषि॑। जु॒हु॒रे॒। समि॑द्ध॒ इति॒ सम्ऽइ॑द्धे ॥७५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:75


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) योगीजन ! (ते) तेरे (परमे) सब से अति उत्तम योग के संस्कार से उत्पन्न हुए (जन्मन्) जन्म में वा (त्वे) तेरे वर्त्तमान जन्म में (अवरे) न्यून (सधस्थे) एक साथ स्थान में वर्त्तमान हम लोग (स्तोमैः) स्तुतियों से (विधेम) सत्कारपूर्वक तेरी सेवा करें, तू हम लोगों को (यस्मात्) जिस (योनेः) स्थान से (उदारिथ) अच्छे-अच्छे साधनों के सहित प्राप्त हो, (तम्) उस स्थान को मैं (प्र, यजे) अच्छे प्रकार प्राप्त होऊँ और जैसे होम करनेवाले लोग (समिद्धे) अच्छे प्रकार जलते हुए अग्नि में (हवींषि) होम करने योग्य वस्तुओं को (जुहुरे) होमते हैं, वैसे योगाग्नि में हम लोग दुःखों के होम का (विधेम) विधान करें ॥७५ ॥
भावार्थभाषाः - इस संसार में योग के संस्कार से युक्त जिस जीव का पवित्र भाव से जन्म होता है, वह संस्कार की प्रबलता से योग ही के जानने की चाहना करनेवाला होता है और उसका जो सेवन करते हैं, वे भी योग की चाहना करनेवाले होते हैं, उक्त सब योगीजन जैसे अग्नि इन्धन को जलाता है, वैसे समस्त दुःख अशुद्धि भाव को योग से जलाते हैं ॥७५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(विधेम) परिचरेम (ते) तव (परमे) सर्वोत्कृष्टे योगसंस्कारजे (जन्मन्) जन्मनि। अत्र सुपां सुलुग्० [अष्टा०७.१.३९] इति ङेर्लुक्। (अग्ने) योगसंस्कारेण दुष्टकर्मदाहक (विधेम) सेवेमहि (स्तोमैः) स्तुतिभिः (अवरे) अर्वाचीने (सधस्थे) सहस्थाने (यस्मात्) (योनेः) स्थानात् (उदारिथ) उत्कृष्टैः साधनैः प्राप्नुहि। अत्र अन्येषामपि० [अष्टा०६.३.१३७] इति दीर्घः। (यजे) संगच्छे (तम्) (प्र) (त्वे) त्वयि (हवींषि) होतव्यानि (जुहुरे) जुह्वति (समिद्धे) सम्यक् प्रदीप्ते ॥७५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने योगिन् ! ते तव परमे जन्मन् त्वे वर्त्तमानेऽवरे सधस्थे वर्त्तमाना वयं स्तोमैर्विधेम, त्वमस्मान् यस्माद् योनेरुदारिथ, तं योनिमहं प्रयजे, यथा होतारः समिद्धे अग्नौ हवींषि जुहुरे, तथा योगाग्नौ दुःखसमूहस्य होमं विधेम ॥७५ ॥
भावार्थभाषाः - इह यस्य योगसंस्कारयुक्तस्य जीवस्य पवित्रोपचितं जन्म जायते, स संस्कारबलाद् योगिजिज्ञासुरेव भवति। ये तं सेवन्ते तेऽपि योगजिज्ञासवो सर्व एतेऽग्निरिन्धनानीव सर्वामशुद्धिं योगेन दहन्ति ॥७५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या जगात पूर्वजन्मीच्या योगयुक्त संस्काराने ज्या पवित्र जीवाचा जन्म होतो त्याचे संस्कार प्रबळ असल्यामुळे तो योगाची इच्छा धरणाराच असतो व त्याच्या संगतीत जे राहतात किंवा त्याचा स्वीकार करतात ते ही योगाची आवड असणारेच असतात. वरील सर्व योगिजन अग्नी जसा इंधन जाळतो तसे सर्व दुःख व अशुद्धी योगबलानेच जाळतात.