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प्राची॒मनु॑ प्र॒दिशं॒ प्रेहि॑ वि॒द्वान॒ग्नेर॑ग्ने पु॒रोऽअ॑ग्निर्भवे॒ह। विश्वा॒ऽआशा॒ दीद्या॑नो॒ वि भा॒ह्यूर्जं॑ नो धेहि द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे ॥६६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्राची॑म्। अनु॑। प्र॒दिश॒मिति॑ प्र॒ऽदिश॑म्। प्र। इ॒हि॒। वि॒द्वा॒न्। अ॒ग्नेः। अ॒ग्ने॒। पु॒रोऽअ॑ग्नि॒रिति॑ पु॒रःऽअ॑ग्निः। भ॒व॒। इ॒ह। विश्वाः॑। आशाः॑। दीद्या॑नः। वि। भा॒हि॒। ऊर्ज्ज॑म्। नः॒। धे॒हि॒। द्वि॒ऽपदे॑। चतु॑ष्पदे॑। चतुः॑पद॒ इति॒ चतुः॑ऽपदे ॥६६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:66


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय के अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) शत्रुओं के जलानेहारे सभापति ! तू (प्राचीम्) पूर्व (प्रदिशम्) दिशा की ओर को (अनु, प्र, इहि) अनुकूलता से प्राप्त हो, (इह) इस राज्यकर्म में (अग्नेः) आग्नेय अस्त्र आदि के योग से (पुरोऽअग्निः) अग्नि के तुल्य अग्रगामी (विद्वान्) कार्य्य के जाननेवाले विद्वान् (भव) होओ (विश्वाः) समस्त (आशाः) दिशाओं को (दीद्यानः) निरन्तर प्रकाशित करते हुए सूर्य्य के समान (नः) हम लोगों के (द्विपदे) मनुष्यादि और (चतुष्पदे) गौ आदि पशुओं के लिये (ऊर्ज्जम्) अन्नादि पदार्थ को (धेहि) धारण कर तथा विद्या, विनय और पराक्रम से अभय का (वि, भाहि) प्रकाश कर ॥६६ ॥
भावार्थभाषाः - जो पूर्ण ब्रह्मचर्य्य से समस्त विद्याओं का अभ्यास कर युद्धविद्याओं को जान सब दिशाओं में स्तुति को प्राप्त होते हैं, वे मनुष्यों और पशुओं के खाने योग्य पदार्थों की उन्नति और रक्षा का विधान कर आनन्दयुक्त होते हैं ॥६६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(प्राचीम्) पूर्वाम् (अनु) (प्रदिशम्) प्रकृष्टां दिशम् (प्र) (इहि) प्राप्नुहि (विद्वान्) (अग्नेः) आग्नेयास्त्रादियोगात् (अग्ने) शत्रुदाहक (पुरोऽअग्निः) अग्रगन्ता पावक इव (भव) (इह) अस्मिन् राज्यकर्माणि (विश्वाः) अखिलाः (आशाः) दिशः। आशा इति दिङ्नामसु पठितम् ॥ (निघं०१.६) (दीद्यानः) देदीप्यमानः सूर्य्य इव (वि, भाहि) प्रकाशय (ऊर्ज्जम्) अन्नादिकम् (नः) अस्माकम् (धेहि) (द्विपदे) मनुष्याद्याय (चतुष्पदे) गवाद्याय ॥६६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने सभेश ! त्वं प्राचीं प्रदिशमनुप्रेहि, त्वमिहाग्नेः पुरो अग्निरिव विद्वान् भव। विश्वा आशा दीद्यानः सन् नोऽस्माकं द्विपदे चतुष्पदे ऊर्जं धेहि, विद्याविनयपराक्रमैरभयं विभाहि ॥६६ ॥
भावार्थभाषाः - ये पूर्णेन ब्रह्मचर्येण सर्वा विद्या अभ्यस्य युद्धविद्यां विदित्वा सर्वासु दिक्षु स्तूयन्ते, ते मनुष्याणां पश्वादीनां च भक्ष्यभोज्यमुन्नीय रक्षां विधायानन्दिता भवन्तु ॥६६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करतात व सर्व विद्यांचा अभ्यास करून युद्धविद्या जाणतात ते सर्वांच्या प्रशंसेस पात्र ठरतात असे लोक, माणसे व पशूंच्या खाण्याच्या पदार्थांची वृद्धी करून त्यांचे रक्षण करतात व आनंदात राहतात.