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उ॒द्ग्रा॒भं च॑ निग्रा॒भं च॒ ब्रह्म॑ दे॒वाऽअ॑वीवृधन्। अधा॑ स॒पत्ना॑निन्द्रा॒ग्नी मे॑ विषू॒चीना॒न् व्य᳖स्यताम् ॥६४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒द्ग्रा॒भमित्यु॑त्ऽग्रा॒भम्। च॒। नि॒ग्रा॒भमिति॑ निऽग्रा॒भम्। च॒। ब्रह्म॑। दे॒वाः। अ॒वी॒वृ॒ध॒न्। अध॑। स॒पत्ना॒निति॑ स॒ऽपत्ना॑न्। इ॒न्द्रा॒ग्नीऽइती॑न्द्रा॒ग्नी। मे॒। वि॒षू॒चीना॑न्। वि। अ॒स्य॒ता॒म् ॥६४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:64


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अगले मन्त्र में राजधर्म का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) विद्वान् जन (उद्ग्राभम्) अत्यन्त उत्साह से ग्रहण (च) और (निग्राभम्, च) त्याग भी करके (ब्रह्म) धन को (अवीवृधन्) बढ़ावें (अध) इसके अनन्तर (इन्द्राग्नी) बिजुली और आग के समान दो सेनापति (मे) मेरे (विषूचीनान्) विरोधभाव को वर्त्तनेवाले (सपत्नान्) वैरियों को (व्यस्यताम्) अच्छे प्रकार उठा-उठा के पटकें ॥६४ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य सज्जनों का सत्कार और दुष्टों को पीट, मार, धन को बढ़ा निष्कण्टक राज्य का सम्पादन करते हैं, वे ही प्रशंसित होते हैं। जो राजा राज्य में वसनेहारे सज्जनों का सत्कार और दुष्टों का निरादर करके अपना तथा प्रजा के ऐश्वर्य्य को बढ़ाता है, उसी के सभा और सेना की रक्षा करनेवाले जन शत्रुओं नाश कर सकें ॥६४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरग्रे राजधर्म उपदिश्यते ॥

अन्वय:

(उद्ग्राभम्) उत्कृष्टतया ग्रहणम् (च) (निग्राभम्) निग्रहम् (च) (ब्रह्म) धनम् (देवाः) विद्वांसः (अवीवृधन्) वर्धयन्तु (अध) अथ। अत्र निपातस्य च [अष्टा०६.३.१३६] इति दीर्घः (सपत्नान्) अरीन् (इन्द्राग्नी) विद्युत्पावकाविव सेनापती (मे) मम (विषूचीनान्) विरुद्धमाचरतः (वि) (अस्यताम्) ॥६४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - देवा उद्ग्राभं च निग्राभं च कृत्वा ब्रह्मावीवृधन्, अधाथ सेनापती इन्द्राग्नी इव मे विषूचीनान् सपत्नान् व्यस्यतामुत्क्षिपताम् ॥६४ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः सज्जनान् सत्कृत्य दुष्टान् निहत्य ब्रह्म वर्द्धयित्वा निष्कण्टकं राज्यं संपादयन्ति, त एव प्रशंसिताः। यो राजा राष्ट्रवासिनः सज्जनान् सत्कृत्य दुष्टान् निरस्यैश्वर्यं वर्धयति, तस्यैव सभासेनापती शत्रुनाशं कर्त्तुं शक्नुयाताम् ॥६४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे सज्जनांचा सन्मान व दुष्टांना दंड देतात. धन प्राप्त करून राज्य निष्कंटकपणे चालवितात तीच प्रशंसनीय असतात. जो राजा राज्यातील सज्जनांचा सत्कार व दुष्टांचा अपमान करतो आणि ऐश्वर्य वाढवितो त्याच्या राज्याचे व सैन्याचे रक्षण करणारे रक्षक शत्रूंचा नाश करू शकतात.