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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्विन् सभापते ! हम लोग (हिमस्य) शीतल को (जरायुणा) जीर्ण करनेवाले वस्त्र वा अग्नि से (त्वा) आपको (परि, व्ययामसि) सब प्रकार आच्छादित करते हैं, वैसे (पावकः) पवित्रस्वरूप आप (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (शिवः) मङ्गलमय (भव) हूजिये ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - हे सभापते ! जैसे अग्नि वा वस्त्र शीत से पीडि़त प्राणियों को जाड़े से छुड़ा के प्रसन्न करता है, वैसे ही आप का आश्रय किये हुए हम लोग दुःख से छूटे हुए सुख सेवनेवाले होवें ॥५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तेवाह ॥
अन्वय:
(हिमस्य) शीतस्य (त्वा) ताम् (जरायुणा) जरामेति येन जरायुस्तेन वस्त्रेणाग्निना वा (अग्ने) अग्निवत् तेजस्विन् (परि) सर्वतः (व्ययामसि) संवृणोमि (पावकः) पवित्रः (अस्मभ्यम्) (शिवः) मङ्गलमयः (भव) ॥५ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने सभेश ! वयं हिमस्य जरायुणा त्वा परिव्ययामसि, पावकस्त्वमस्मभ्यं शिवो भव ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - हे सभेश ! यथाग्निर्वस्त्रं वा शीतातुरान् प्राणिनः शैत्याद् वियोज्य प्रसादयति, तथैव त्वदाश्रिता वयं दुःखान्मुक्ताः सन्तः सुखभाजिनः स्याम ॥५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! जसा अग्नी किंवा वस्त्र थंडीने कुडकुडणाऱ्या प्राण्यांचा बचाव करून सुखी करतात तसे तुझ्या आश्रयाने आम्ही सुखी व्हावे, दुःखी होता कामा नये.