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अ॒मीषां॑ चि॒त्तं प्र॑तिलो॒भय॑न्ती गृहा॒णाङ्गा॑न्यप्वे॒ परे॑हि। अ॒भि प्रेहि॒ निर्द॑ह हृ॒त्सु शोकै॑र॒न्धेना॒मित्रा॒स्तम॑सा सचन्ताम् ॥४४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒मीषा॑म्। चि॒त्तम्। प्र॒ति॒लो॒भय॒न्तीति॑ प्रतिऽलो॒भय॑न्ती। गृ॒हा॒ण। अङ्गा॑नि। अ॒प्वे॒। परा॑। इ॒हि॒। अ॒भि। प्र। इ॒हि॒। निः। द॒ह॒। हृ॒त्स्विति॑ हृ॒त्ऽसु। शोकैः॑। अ॒न्धेन॑। अ॒मित्राः॑। तम॑सा। स॒च॒न्ता॒म् ॥४४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:44


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अप्वे) शत्रुओं के प्राणों को दूर करनेहारी राणी क्षत्रिया वीर स्त्री ! (अमीषाम्) उन सेनाओं के (चित्तम्) चित्त को (प्रतिलोभयन्ती) प्रत्यक्ष में लुभानेवाली जो अपनी सेना है, उसके (अङ्गानि) अङ्गों को तू (गृहाण) ग्रहण कर अधर्म्म से (परेहि) दूर हो, अपनी सेना को (अभि, प्रेहि) अपना अभिप्राय दिखा और शत्रुओं को (निर्दह) निरन्तर जला, जिससे ये (अमित्राः) शत्रुजन (हृत्सु) अपने हृदयों में (शोकैः) शोकों से (अन्धेन) आच्छादित हुए (तमसा) रात्रि के अन्धकार के साथ (सचन्ताम्) संयुक्त रहें ॥४४ ॥
भावार्थभाषाः - सभापति आदि को योग्य है कि जैसे अतिप्रशंसित हृष्ट-पुष्ट अङ्ग उपाङ्गादियुक्त शूरवीर पुरुषों की सेना को स्वीकार करें, वैसे शूरवीर स्त्रियों की भी सेना स्वीकार करें और जिस स्त्रीसेना में अव्यभिचारिणी स्त्री रहें, उस सेना से शत्रुओं को वश में स्थापन करें ॥४४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अमीषाम्) परोक्षाणाम् (चित्तम्) स्वान्तम् (प्रतिलोभयन्ती) प्रत्यक्षे मोहयन्ती (गृहाण) (अङ्गानि) सेनावयवान् (अप्वे) यापवाति शत्रुप्राणान् हिनस्ति तत्सम्बुद्धौ। अपपूर्वाद्वातेः अन्येभ्योऽपि दृश्यते [अष्टा०३.२.१७८] इति क्विप् अकारलोपश्छान्दसः (परा) (इहि) दूरं गच्छ (अभि) (प्र) (इहि) अभिप्रायं दर्शय (निर्दह) नितरां भस्मीकुरु (हृत्सु) हृदयेषु (शोकैः) (अन्धेन) आवरकेण (अमित्राः) शत्रवः (तमसा) रात्र्यन्धकारेण (सचन्ताम्) संयुञ्जन्तु ॥४४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अप्वे शूरवीरे राजस्त्रि क्षत्रिये ! अमीषां चित्तं प्रतिलोभयन्ती या स्वसेनास्ति तस्या अङ्गानि त्वं गृहाण। अधर्मात् परेहि स्वसेनामभिप्रेहि शत्रून् निर्दह, यत इमेऽमित्रा हृत्सु शौकेरन्धेन तमसा सह सचन्तां संयुक्तास्तिष्ठन्तु ॥४४ ॥
भावार्थभाषाः - सभापत्यादिभिर्यथाऽतिप्रशंसिता हृष्टपुष्टा साङ्गोपाङ्गा पुरुषसेना स्वीकार्या तथा स्त्रीसेना च। यत्राव्यभिचारिण्यः स्त्रियस्तिष्ठेयुस्तया सेनया शत्रवो वशे स्थापनीयाः ॥४४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा इत्यादी लोकांनी अत्यंत प्रशंसनीय व सुदृढ शरीर असलेल्या शूर वीर पुरुषांची सेना तयार करावी, तसेच शूर वीर स्त्रियांची सेना ही स्थापन करावी. ज्या सेनेत चारित्र्यवान स्त्रिया असतात त्या सेनेने शत्रूला ताब्यात ठेवावे.