वांछित मन्त्र चुनें

विश्व॑कर्मन् ह॒विषा॑ वावृधा॒नः स्व॒यं य॑जस्व पृथि॒वीमु॒त द्याम्। मुह्य॑न्त्व॒न्येऽअ॒भितः॑ स॒पत्ना॑ऽइ॒हास्माकं॑ म॒घवा॑ सू॒रिर॑स्तु ॥२२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विश्व॑कर्म॒न्निति॒ विश्व॑ऽकर्मन्। ह॒विषा॑। वा॒वृ॒धा॒नः। व॒वृ॒धा॒न इति॑ ववृधा॒नः। स्व॒यम्। य॒ज॒स्व॒। पृ॒थि॒वीम्। उ॒त। द्याम्। मुह्य॑न्तु। अ॒न्ये। अ॒भितः॑। स॒पत्ना॒ इति॑ स॒ऽपत्नाः॑। इ॒ह। अ॒स्माक॑म्। म॒घवेति॑ म॒घऽवा॑। सू॒रिः। अ॒स्तु॒ ॥२२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:22


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विश्वकर्मन्) सम्पूर्ण उत्तम कर्म करनेहारे सभापति ! (हविषा) उत्तम गुणों के ग्रहण से (वावृधानः) उन्नति को प्राप्त हुआ जैसे ईश्वर (पृथिवीम्) भूमि (उत) और (द्याम्) सूर्यादि लोक को सङ्गत करता है, वैसे आप (स्वयम्) आप ही (यजस्व) सब से समागम कीजिये। (इह) इस जगत् में (मघवा) प्रशंसित धनवान् पुरुष (सूरिः) विद्वान् (अस्तु) हो, जिससे (अस्माकम्) हमारे (अन्ये) और (सपत्नाः) शत्रुजन (अभितः) सब ओर से (मुह्यन्तु) मोह को प्राप्त हों ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य ईश्वर ने जिस प्रयोजन के लिये जो पदार्थ रचा है, उसको वैसा जान के उपकार लेते हैं, उनकी दरिद्रता और आलस्यादि दोषों का नाश होने से शत्रुओं का प्रलय होता और वे आप भी विद्वान् हो जाते हैं ॥२२ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(विश्वकर्मन्) अखिलोत्तमकर्मकारिन् (हविषा) हवनेनोत्तमगुणादानेन (वावृधानः) वर्धमानः सन् (स्वयम्) (यजस्व) संगतं कुरु (पृथिवीम्) (उत) अपि (द्याम्) सूर्यादिलोकम् (मुह्यन्तु) (अन्ये) (अभितः) सर्वतः (सपत्नाः) शत्रवः (इह) (अस्माकम्) (मघवा) पूजितधनयुक्तः (सूरिः) विद्वान् (अस्तु) ॥२२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विश्वकर्मन् ! हविषा वावृधानः सन् यथेश्वरः पृथिवीमुत द्यां संगमयति, तथा त्वं स्वयं यजस्वेह मघवा सूरिरस्तु, यतोऽस्माकमन्ये सपत्ना अभितो मुह्यन्तु ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या ईश्वरेण यस्मै प्रयोजनाय यद्वस्तु रचितं तत्तथा विज्ञायोपकुर्वन्ति, तेषां दारिद्र्यालस्यादिदोषक्षयाच्छत्रवः प्रलीयन्ते, ते स्वयं च विद्वांसो जायन्ते ॥२२ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ईश्वराने ज्या प्रयोजनासाठी जे पदार्थ निर्माण केलेले आहेत त्यांना यथार्थपणे जाणून जी माणसे त्यांचा लाभ करून घेतात त्यांचे दारिद्र्य व आळस नष्ट होतो आणि त्यांच्या शत्रूंचाही नाश होतो व ती माणसे स्वतःही विद्वान बनतात.