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ये दे॒वा दे॒वानां॑ य॒ज्ञिया॑ य॒ज्ञिया॑ना संवत्स॒रीण॒मुप॑ भा॒गमास॑ते। अ॒हु॒तादो॑ ह॒विषो॑ य॒ज्ञेऽअ॒स्मिन्त्स्व॒यं पि॑बन्तु॒ मधु॑नो घृ॒तस्य॑ ॥१३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ये। दे॒वाः। दे॒वाना॑म्। य॒ज्ञियाः॑। य॒ज्ञिया॑नाम्। सं॒व॒त्स॒रीण॑म्। उप॑। भा॒गम्। आस॑ते। अ॒हु॒ताद॒ इत्य॑हुत॒ऽअदः॑। ह॒विषः॑। य॒ज्ञे। अ॒स्मिन्। स्व॒यम्। पि॒ब॒न्तु॒। मधु॑नः। घृ॒तस्य॑ ॥१३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:13


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब संन्यासियों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (देवानाम्) विद्वानों में (अहुतादः) बिना हवन किये हुए पदार्थ का भोजन करनेहारे (देवाः) विद्वान् (यज्ञियानाम्) वा यज्ञ करने में कुशल पुरुषों में (यज्ञियाः) योगाभ्यासादि यज्ञ के योग्य विद्वान् लोग (संवत्सरीणम्) वर्ष भर पुष्ट किये (भागम्) सेवने योग्य उत्तम परमात्मा की (उपासते) उपासना करते हैं, वे (अस्मिन्) इस (यज्ञे) समागमरूप यज्ञ में (मधुनः) शहत (घृतस्य) जल और (हविषः) हवन के योग्य पदार्थों के भाग को (स्वयम्) अपने आप (पिबन्तु) सेवन करें ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् लोग इस संसार में अग्निक्रिया से रहित अर्थात् आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि सम्बन्धी बाह्य कर्मों को छोड़ के आभ्यन्तर अग्नि को धारण करनेवाले संन्यासी हैं, वे होम को नहीं किये भोजन करते हुए सर्वत्र विचर के सब मनुष्यों को वेदार्थ का उपदेश किया करें ॥१३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ संन्यासिभिः किं कार्यमित्याह ॥

अन्वय:

(ये) (देवाः) विद्वांसः (देवानाम्) विदुषाम् (यज्ञियाः) ये यज्ञमर्हन्ति ते (यज्ञियानाम्) यज्ञसम्पादनकुशलानाम् (संवत्सरीणम्) यः संवत्सरं भृतस्तम्। संपरिपूर्वात् खच् ॥ (अष्टा०५.१.९२) इति भृतार्थे खः (उप) (भागम्) सेवनीयम् (आसते) (अहुतादः) येऽहुतमदन्ति ते (हविषः) होतव्यस्य (यज्ञे) संगन्तव्ये (अस्मिन्) (स्वयम्) (पिबन्तु) (मधुनः) क्षौद्रस्य (घृतस्य) आज्यस्य जलस्य वा ॥१३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - ये देवानां मध्येऽहुतादो देवा यज्ञियानां मध्ये यज्ञिया विद्वांसः संवत्सरीणं भागमुपासते, तेऽस्मिन् यज्ञे मधुनो घृतस्य हविषो भागं स्वयं पिबन्तु ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः - येऽस्मिन् संसारे अनग्नयोऽर्थादाहवनीयगार्हपत्यदक्षिणाग्निसम्बन्धिबाह्यकर्माणि विहायान्तरग्नयः संन्यासिनः सन्ति, ते होममकुर्वन्तो भुञ्जानाः सर्वत्र विहृत्य सर्वान् जनान् वेदार्थान् बोधयेयुः ॥१३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे विद्वान या संसारात अग्निहोत्र करत नाहीत अर्थात गार्हपत्य व दक्षिणाग्नीसंबंधी बाह्य कर्म सोडून आभ्यंतर अग्नी धारण करतात ते संन्याशी होत. (हवन न करताही भोजन करून) त्यांनी सर्वत्र संचार करून सर्व माणसांना वेदाचा उपदेश करावा.