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नील॑ग्रीवाः शिति॒कण्ठाः॑ श॒र्वाऽअ॒धः क्ष॑माच॒राः। तेषा॑ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि ॥५७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नील॑ग्रीवा॒ इति॒ नील॑ऽग्रीवाः। शि॒ति॒कण्ठा॒ इति॑ शिति॒ऽकण्ठाः॑। श॒र्वाः। अ॒धः। क्षमाचरा इति॑ क्षमाऽच॒राः। तेषा॑म्। स॒ह॒स्र॒यो॒ज॒न इति॑ सहस्रऽयोज॒ने। अव॑। धन्वा॑नि। त॒न्म॒सि॒ ॥५७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:16» मन्त्र:57


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (नीलग्रीवाः) नीली ग्रीवावाले तथा (शितिकण्ठाः) श्वेत कण्ठवाले (शर्वाः) हिंसक जीव और (अधः) नीचे को वा (क्षमाचराः) पृथिवी में चलनेवाले जीव हैं (तेषाम्) उन के (सहस्रयोजने) हजार योजन के देश में दूर करने के लिये (धन्वानि) धनुषों को हम लोग (अव, तन्मसि) विस्तृत करते हैं ॥५७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो वायु भूमि से आकाश और आकाश से भूमि को जाते-आते हैं। उनमें जो अग्नि और पृथिवी आदि के अवयव रहते हैं, उन को जान और उपयोग में लाके कार्य सिद्ध करें ॥५७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(नीलग्रीवाः) नीला ग्रीवा येषां ते (शितिकण्ठाः) शितिः श्वेतः कण्ठो येषां ते (शर्वाः) हिंसकाः (अधः) अधोगामिनः (क्षमाचराः) ये क्षमायां पृथिव्यां चरन्ति। तेषामिति पूर्ववत् ॥५७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! ये नीलग्रीवाः शितिकण्ठाः शर्वा अधः क्षमाचराः सन्ति, तेषां सहस्रयोजने दूरीकरणाय धन्वानि वयमवतन्मसि ॥५७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्ये वायवो भूमेरन्तरिक्षमन्तरिक्षाद् भूमिं च गच्छन्त्यागच्छन्ति तत्र ये तेजोभूम्यादितत्त्वानामवयवाश्चरन्ति, तान् विज्ञायोपयुज्य कार्य्यं साध्यम् ॥५७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो वायू भूमीकडून आकाशाकडे जातो व आकाशातून भूमीकडे येतो त्यात अग्नी व पृथ्वी इत्यादींचे अणू असतात. त्यांचे ज्ञान प्राप्त करून माणसांनी कार्य सिद्ध करावे.