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अ॒स्मिन् म॑ह॒त्य᳖र्ण॒वे᳕ऽन्तरि॑क्षे भ॒वाऽअधि॑। तेषा॑ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि ॥५५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मिन्। म॒ह॒ति। अ॒र्ण॒वे। अ॒न्तरि॑क्षे। भ॒वाः। अधि॑। तेषा॑म्। स॒ह॒स्र॒यो॒जन इति॑ सहस्रऽयोज॒ने। अव॑। धन्वा॑नि। त॒न्म॒सि॒ ॥५५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:16» मन्त्र:55


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग जो (अस्मिन्) इस (महति) व्यापकता आदि बड़े-बड़े गुणों से युक्त (अर्णवे) बहुत जलोंवाले समुद्र के समान अगाध (अन्तरिक्षे) सब के बीच अविनाशी आकाश में (भवाः) वर्त्तमान जीव और वायु हैं (तेषाम्) उनको उपयोग में लाके (सहस्रयोजने) असंख्यात चार कोश के योजनोंवाले देश में (धन्वानि) धनुषों वा अन्नादि धान्यों को (अध्यव, तन्मसि) अधिकता के साथ विस्तार करें, वैसे तुम लोग भी करो ॥५५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि जैसे पृथिवी के जीव और वायुओं से कार्य सिद्ध करते हैं, वैसे आकाशस्थों से भी किया करें ॥५५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अस्मिन्) (महति) व्यापकत्वादिमहागुणविशिष्टे (अर्णवे) बहून्यर्णांसि जलानि विद्यन्ते यस्मिँस्तस्मिन्निव। अर्ण इत्युदकनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१२) अर्णसो लोपश्च [अष्टा०वा०५.२.१०९] इति सलोपो वप्रत्ययश्च। (अन्तरिक्षे) अन्तरक्षय आकाशे (भवाः) वर्त्तमानाः (अधि) (तेषाम्०) इति पूर्ववत् ॥५५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा वयं येऽस्मिन् महत्यर्णवेऽन्तरिक्षे भवा रुद्रा जीवा वायवश्च सन्ति, तेषां प्रयोगं कृत्वा सहस्रयोजने धन्वान्यध्यवतन्मसि, तथा यूयमपि कुरुत ॥५५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यथा भूमिस्थेभ्यो जीवेभ्यो वायुभ्यश्च कार्योपयोगः क्रियते, तथाऽन्तरिक्षस्थेभ्योऽपि कर्त्तव्यः ॥५५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसे ज्याप्रमाणे पृथ्वीवरील जीव व वायू यांचा उपयोग करून घेतात, त्याप्रमाणे आकाशातील जीव व वायू यांचाही उपयोग करून घ्यावा.