इ॒मा रु॒द्राय॑ त॒वसे॑ कप॒र्दिने॑ क्ष॒यद्वी॑राय॒ प्र भ॑रामहे म॒तीः। यथा॒ श॑मसद् द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे॒ विश्वं॑ पु॒ष्टं ग्रामे॑ऽअ॒स्मिन्न॑नातु॒रम् ॥४८ ॥
इ॒माः। रु॒द्राय॑। त॒वसे॑। क॒प॒र्दिने॑। क्ष॒यद्वी॑रा॒येति॑ क्ष॒यत्ऽवी॑राय। प्र। भ॒रा॒म॒हे॒। म॒तीः। यथा॑। श॒म्। अ॒स॒त्। द्वि॒पद॒ इति॑ द्वि॒ऽपदे॑। चतु॑ष्पदे। चतुः॑पद॒ इति॒ चतुः॑ऽपदे। विश्व॑म्। पु॒ष्टम्। ग्रामे॑। अ॒स्मिन्। अ॒ना॒तु॒रम् ॥४८ ॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
विद्वद्भिः किं कार्यमित्युच्यते ॥
(इमाः) प्रजा (रुद्राय) शत्रुरोदकाय (तवसे) बलिष्ठाय (कपर्दिने) कृतब्रह्मचर्याय (क्षयद्वीराय) क्षयन्तो दुष्टनाशका वीरा यस्य तस्मै (प्र) (भरामहे) धरामहे (मतीः) मेधाविनः। मतय इति मेधाविनामसु पठितम् ॥ (निघं०३.१५) (यथा) (शम्) सुखम् (असत्) भवेत् (द्विपदे) मनुष्याद्याय (चतुष्पदे) गवाद्याय (विश्वम्) सर्वं जगत् (पुष्टम्) रोगरहितत्वेन बलिष्ठम् (ग्रामे) ब्रह्माण्डसमूहे (अस्मिन्) वर्त्तमाने (अनातुरम्) अदुःखितम् ॥४८ ॥