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नमः॑ स॒भाभ्यः॑ स॒भाप॑तिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमोऽश्वे॒भ्योऽश्व॑पतिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॑ऽआव्या॒धिनी॑भ्यो वि॒विध्य॑न्तीभ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॒ऽउग॑णाभ्यस्तृꣳह॒तीभ्य॑श्च वो॒ नमः॑ ॥२४ ॥

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पद पाठ

नमः॑। स॒भाभ्यः॑। स॒भाप॑तिभ्य॒ इति॑ स॒भाप॑तिऽभ्यः। च॒। वः॒। नमः॑। नमः॑। अश्वे॑भ्यः। अश्व॑पतिभ्य॒ इत्यश्व॑पतिऽभ्यः। च॒। वः॒। नमः॑। नमः॑। आ॒व्या॒धिनी॑भ्य॒ इत्या॑ऽव्या॒धिनी॑भ्यः। वि॒विध्य॑न्तीभ्य॒ इति॑ वि॒ऽविध्य॑न्तीभ्यः। च॒। वः॒। नमः॑। नमः॑। उग॑णाभ्यः। तृ॒ꣳह॒तीभ्यः॑। च॒। वः॒। नमः॑ ॥२४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:16» मन्त्र:24


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यों को सब के प्रति ऐसे कहना चाहिये कि हम लोग (सभाभ्यः) न्याय आदि के प्रकाश से युक्त स्त्रियों का (नमः) सत्कार (च) और (सभापतिभ्यः) सभाओं के रक्षक (वः) तुम राजाओं का (नमः) सत्कार करें (अश्वेभ्यः) घोड़ों को (नमः) अन्न (च) और (अश्वपतिभ्यः) घोड़ों के रक्षक (वः) तुम को (नमः) अन्न तथा (आव्याधिनीभ्यः) शत्रुओं की सेनाओं को मारने हारी अपनी सेनाओं के लिये (नमः) अन्न देवें (च) और (विविध्यन्तीभ्यः) शत्रुओं के वीरों को मारती हुई (वः) तुम स्त्रियों का (नमः) सत्कार करें (उगणाभ्यः) विविध तर्कोंवाली स्त्रियों को (नमः) अन्न (च) और (तृंहतीभ्यः) युद्ध में मारती हुई (वः) तुम स्त्रियों के लिये (नमः) अन्न देवें तथा यथायोग्य सत्कार किया करें ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि सभा और सभापतियों से ही राज्य की व्यवस्था करें। कभी एक राजा की अधीनता से स्थिर न हों, क्योंकि एक पुरुष से बहुतों के हिताहित का विचार कभी नहीं हो सकता इससे ॥२४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(नमः) सत्करणम् (सभाभ्यः) या न्यायादिप्रकाशेन सह वर्त्तन्ते ताभ्यः सभाभ्यः स्त्रीभ्यः (सभापतिभ्यः) सभानां पालकेभ्यो राजभ्यः (च) (वः) (नमः) सत्करणम् (नमः) अन्नम् (अश्वेभ्यः) हयेभ्यः (अश्वपतिभ्यः) अश्वानां पालकेभ्यः (च) (वः) (नमः) अन्नम् (नमः) अन्नम् (आव्याधिनीभ्यः) शत्रुसेनां ताडनशीलाभ्यः स्वसेनाभ्यः (विविध्यन्तीभ्यः) शत्रूवीरान् निहन्त्रीभ्यः (च) (वः) (नमः) सत्करणम् (नमः) अन्नम् (उगणाभ्यः) विविधतर्कयुक्ता गणा यासु ताभ्यः (तृंहतीभ्यः) हन्त्रीभ्यः (च) (वः) (नमः) अन्नप्रदानम् ॥२४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यैः सर्वान् प्रत्येवं वक्तव्यं वयं सभाभ्यो नमः सभापतिभ्यश्च वो नमोऽश्वेभ्यो नमोऽश्वपतिभ्यश्च वो नम आव्याधिनीभ्यो नमो विविध्यन्तीभ्यश्च वो नम उगणाभ्यो नमस्तृंहतीभ्यश्च वो नमः कुर्याम दद्याम च ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सभया सभापतिभिश्चैव राज्यव्यवस्था कार्या न खलु कदाचिदेकराजाधीनत्वेन स्थातव्यं यतो नैकेन बहूनां हिताहितसाधनं भवितुं शक्यमतः ॥२४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी सभा व राजा यांच्याकडून राज्याची व्यवस्था ठेवावी. ती एका राजाच्या आधीन कधीच नसावी. याचे कारण अस की, एक पुरुष अनेकांच्या हिताहिताचा विचार करू शकत नाही.