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आ॒योष्ट्वा॒ सद॑ने सादया॒म्यव॑तश्छा॒याया॑ समु॒द्रस्य॒ हृद॑ये। र॒श्मी॒वतीं॒ भास्व॑ती॒मा या द्यां भास्या पृ॑थि॒वीमोर्व॒न्तरि॑क्षम् ॥६३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ॒योः। त्वा॒। सद॑ने। सा॒द॒या॒मि॒। अव॑तः। छा॒याया॑म्। स॒मु॒द्रस्य॑। हृद॑ये। र॒श्मी॒वती॒मिति॑ रश्मि॒ऽवती॑म्। भास्व॑तीम्। आ। या। द्या॒म्। भासि॑। आ। पृ॒थि॒वीम्। आ। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम् ॥६३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:63


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

विदुषी स्त्री को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! (या) जो तू (द्याम्) प्रकाश (पृथिवीम्) भूमि और (अन्तरिक्षम्) आकाश को (उरु) बहुत (आ, भासि) प्रकाशित करती है, उस (रश्मीवतीम्) शुद्ध विद्या के प्रकाश से युक्त (भास्वतीम्) शोभा को प्राप्त हुई (त्वा) तुझ को (आयोः) न्यायानुकूल चलनेवाले चिरंजीवी पुरुष के (सदने) स्थान में और (अवतः) रक्षा आदि करते हुए के (छायायाम्) आश्रय में (आ, सादयामि) अच्छे प्रकार स्थापित तथा (समुद्रस्य) अन्तरिक्ष के (हृदये) बीच (आ) शुद्ध प्रकार से मैं स्थित कराता हूँ ॥६३ ॥
भावार्थभाषाः - हे स्त्रि ! अच्छे प्रकार पालने हारे पति के आश्रयरूप स्थान में समुद्र के तुल्य चञ्चलतारहित गम्भीरतायुक्त प्यारी तुझ को स्थित करता हूँ। तू गृहाश्रम के धर्म का प्रकाश कर पति आदि को सुखी रख और तुझ को भी पति आदि सुखी रक्खें ॥६३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

विदुष्या किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(आयोः) न्यायानुगामिनो दीर्घजीवितस्य (त्वा) त्वाम् (सदने) स्थाने (सादयामि) (अवतः) रक्षणादि कुर्वतः (छायायाम्) आश्रये (समुद्रस्य) (हृदये) मध्ये (रश्मीवतीम्) प्रशस्तविद्याप्रकाशयुक्ताम्। अत्र अन्येषामपि [अ०६.३.१३७] इति दीर्घः (भास्वतीम्) देदीप्यमानाम् (आ) (या) (द्याम्) प्रकाशम् (भासि) दीपयसि (आ) (पृथिवीम्) भूमिम् (आ) (उरु) (अन्तरिक्षम्) आकाशम्। [अयं मन्त्रः शत०८.७.३.१३ व्याख्यातः] ॥६३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! या त्वं द्यां पृथिवीमन्तरिक्षमुर्वाभासि तां रश्मीवतीं भास्वतीं वा त्वामायोः सदनेऽवतश्छायायामा सादयामि समुद्रस्य हृदयेऽहमा सादयामि ॥६३ ॥
भावार्थभाषाः - हे स्त्रि ! सम्यक् पालकस्य पत्युः सदने तदाश्रये समुद्रवदक्षोभां हृद्यां त्वां स्थापयामि त्वं गृहाश्रमधर्मं प्रकाश्य पत्यादीन् सुखय, त्वां चैते सुखयन्तु ॥६३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - चंचलतारहित समुद्राप्रमाणे गंभीर असणाऱ्या हे स्त्रिये ! उत्तम पतीच्या आश्रयाने गृहस्थाश्रमाचा स्वीकार करून धर्मयुक्त बनून पतीला सुखी कर. पतीनेही तुला सुखी करावे.