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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुर्वणीक) बहुत सेनावाले राजपुरुष विद्वन् ! (गिरा) वाणी से (ईडेन्यः) खोजने योग्य (वसुः) निवास का हेतु (कविः) समर्थ (इधानः) प्रदीप्त (सः) उस पूर्वोक्त (अग्निः) अग्नि के समान (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (रेवत्) प्रशंसित धनयुक्त पदार्थों को (दीदिहि) प्रकाशित कीजिये ॥३६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र मे वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् को चाहिये कि अग्नि के गुण, कर्म और स्वभाव के प्रकाश से मनुष्यों के लिये ऐश्वर्य की उन्नति करे ॥३६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः स कीदृश इत्याह ॥
अन्वय:
(सः) पूर्वोक्तः (इधानः) प्रदीप्तः (वसुः) वासयिता (कविः) समर्थः (अग्निः) पावकः (ईडेन्यः) अन्वेषणीयः (गिरा) वाण्या (रेवत्) प्रशस्तधनयुक्तम् (अस्मभ्यम्) (पुर्वणीक) पुरु बहु अनीकं सैन्यं यस्य तत्संबुद्धौ (दीदिहि) प्रकाशय ॥३६ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे पुर्वणीक विद्वन् ! स गिरेडेन्यो वसुः कविरिधानः सोऽग्निरिवाऽस्मभ्यं रेवद्दीदिहि प्रकाशय ॥३६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विदुषाऽग्निगुणकर्मस्वभावप्रकाशनेन मनुष्येभ्य ऐश्वर्यमुन्नेयम् ॥३६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वानांनी अग्नीचा गुण, कर्म, स्वभाव जाणून त्याप्रमाणे सर्व माणसांसाठी ऐश्वर्य प्राप्ती व्हावी असे कार्य करावे.